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202 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
हैं।" यह कर्म कुम्हार के घड़ों के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है। उनमें से कितने ही घड़े ऐसे होते हैं, जिन्हें लोग कलश बनाकर अक्षत, चन्दन आदि से सजाते हैं और कितने ही ऐसे होते हैं, जो मदिरा रखने के काम में आते हैं और इस कारण निम्न माने जाते हैं। उसी प्रकार जिस कर्म के कारण जीव का व्यक्तित्व उच्च अथवा निम्न बनता है, वह गोत्र कर्म कहलाता है। इस कर्म के दो मुख्य भेद हैं - 1. उच्च गोत्र कर्म : जिस कर्म के उदय से प्राणी लोक प्रतिष्ठित कुल आदि
में जन्म ग्रहण करता है। वह देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार,
ऐश्वर्य प्रभृति विषयक उत्कर्ष का कारण है। 2. नीच गोत्र कर्म : जिस कर्म के उदय से प्राणी का जन्म अप्रतिष्ठित एवं
असंस्कारी कुल में होता है। यह कर्म चाण्डाल, नट, व्याध, पारिधि, मत्स्य
बन्धक, दास आदि भावों का कारण है। उच्च गोत्र कर्म के आठ उपभेद हैं - (i) जाति उच्च गोत्र, (ii) कुल उच्च गोत्र, (iii) बल उच्च गोत्र, (iv) रुप उच्च गोत्र, (v) तप उच्चगोत्र, (vi) श्रुत उच्चगोत्र, (vii) लाभ उच्च गोत्र, (viii) ऐश्वर्य उच्च गोत्र यहाँ जानने योग्य है, कि मातृपक्ष को जाति तथा पितृ पक्ष को कुल कहा जाता है।
नीच गोत्र कर्म के भी आठ उपभेद हैं" - (i) जाति नीचगोत्र - मातृ पक्षीय विशिष्टता के अभाव का कारण। (ii) कुल नीच गोत्र - पितृ पक्षीय विशिष्टता के अभाव का कारण । (iii) बल नीचगोत्र - बल विहीनता का कारण। (iv) तप नीचगोत्र - तप विहीनता का कारण। (v) रुप नीचगोत्र - रुप विहीनता का कारण । (vi) श्रुत नीच गोत्र - श्रुत विहीनता का कारण। (vii) लाभ नीच गोत्र - लाभ विहीनता का कारण। (viii) ऐश्वर्य नीचगोत्र - ऐश्वर्य विहीनता का कारण।
गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मूहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा-कोटी सागरोपम की है।
8. अन्तराय कर्म : जिस कर्म के उदय से देने, लेने में तथा एक बार या अनेक बार भागने और सामर्थ्य प्राप्त करने में अवरोध उपस्थित हो, वह अन्तराय कर्म है।" यह कर्म राजा के उस भण्डारी की भाँति है, जो राजाज्ञा के उपरान्त भी दान देने में आनाकानी करता है, विघ्न डालता है, वैसे ही यह कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा उपस्थित करता है। अन्तराय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं -
(i) दान-अन्तराय कर्म : इस कर्म के उदय से जीवनदान नहीं दे सकता।