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18 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
लग गई और उन्होंने उसी में प्रवेश करके अपने को भस्म कर दिया । "
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श्री मद्भागवत में कहा है- " हे परीक्षित ! सम्पूर्ण लोक, देव, ब्राह्मण और गौ के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव का यह विशुद्ध चारित्र मैंने तुम्हें सुनाया है । यह चारित्र मनुष्यों के समस्त पापों का हरण करने वाला है ।'
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वे कहते हैं - "नाभिराजा ने संसार में धर्म वृद्धि के लिए मोक्ष प्राप्ति और अपवर्ग के पथ प्रदर्शन के लिए अपत्यकामना की और अरिहन्त भगवान् को अवतरित करने के लिए यज्ञ किया।'
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'अर्हन् नाम-रूप प्रकृति के गुणों से निर्लेप अनासक्त तथा मोह से असंस्पृष्ट होते हैं और मोक्ष तथा उपसर्ग का मार्ग बतलाते हैं ।'
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“ऋषभदेव आत्मस्वभावी थे । अनर्थ परम्परा (हिंसा आदि पाप) पूर्ण त्यागी थे । वे केवल अपने ही आनन्द में लीन रहते तथा अपने ही स्वरूप में विचरण करते । । सभी ऋद्धियाँ व सिद्धियाँ स्वतः ही उन्हें प्राप्त थी, जिनका उन्होंने स्वेच्छा से त्याग कर दिया, जिन्हें योगी लोग प्राप्त करने का प्रयास करते हैं ।
" ऋषभदेव साक्षात् ईश्वर थे । वे सर्व समता रखते, सर्व प्राणियों से मित्र - भाव रखते और सर्व प्रकार दया करते थे । '
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श्री मद्भागवत ने उच्च स्वर से उद्घोषित किया है, कि उस ऋषभदेव भगवान् का ज्येष्ठ और श्रेष्ठ गुणी भरत नामक पुत्र था । वह भारत का आदि सम्राट था और उसी के नाम से इस राष्ट्र का नाम भारत वर्ष पड़ा।
जब भरत सम्पूर्ण राज्य को अपने अधीन करना चाहता था, तो शेष 98वें पुत्र उद्विग्न होकर पुरमयोगी ऋषभदेव के पास गए और उनके समक्ष राज्य चिन्ता का शोक प्रकट किया। भगवान ऋषभदेव ने उन 98 पुत्रों की राज्य के प्रति आसक्ति देखकर बहुत ही गम्भीर, मर्मस्पर्शी और कल्याणकारी उपदेश दिया । यह बहुत अंशों में जैन धर्म शास्त्रों के अनुरूप ही है। उसका सार संक्षेप इस प्रकार है
1. हे पुत्रों ! मानवीय संतानों । संसार में शरीर ही कष्टों का घर है । यह भोगने योग्य नहीं है। इसे माध्यम बनाकर दिव्य तप करो, जिससे अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। तप से अन्तःकरण शुद्धि और अन्तःकरण शुद्धि से ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है।
2. हे पुत्रों ! सत्पुरुषों के सदाचार से प्रीति करना ही मोक्ष का ध्रुव द्वार है । जो लोक में और संसार व्यवहार में प्रयोजन मात्र के लिए आसक्ति कर्त्तव्यबुद्धि रखता है, वही समदर्शी प्रशान्त साधु है ।
3. जो इन्द्रियों और प्राणों के सुख के लिए तथा वासना तृप्ति के लिए परिश्रम करता है, उसे हम अच्छा नहीं मानते, क्योंकि शरीर की ममता भी आत्मा के लिए क्लेशदायक है ।
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