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जैन दार्शनिक सिद्धान्त 195
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ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ सर्वघाती और देशघाती रूप से दो प्रकार की हैं।" जो प्रकृति स्वाघात्य ज्ञानगुण का पूर्णतया घात करे वह सर्वघाति है तथा जो स्वघात्य ज्ञानगुण का आंशिक घात करे, वह देशघाती कर्म हैं। मतिज्ञानावरण, श्रुत ज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण ये चार देश घाती कर्म हैं तथा केवलज्ञानावरण कर्म सर्वघाती है। सर्वघाती कहने का तात्पर्य प्रबलतम आवरण की अपेक्षा से है केवलज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाती होने पर भी आत्मा के ज्ञानगुण को सर्वथा आवृत नहीं करता, परन्तु केवलज्ञान का सर्वथा निरोध करता है । निगोदस्थ जीवों में उत्कट ज्ञानावरणीय कर्म का उदय रहता है। जैसे घनघोर घटाओं से सूर्य के पूर्णतः आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का कुछ अंश अनावृत रहता है, जिससे दिन और रात का विभाग प्रतीत होता है, वैसे ही ज्ञान का अनन्तवां भाग नित्य अनावृत रहता है।" जैसे घनघोर घटाओं को विदिर्ण करके सूर्य की प्रभा भूमण्डल पर आती है, पर सभी मकानों पर उसकी प्रभा एक समान नहीं गिरती, मकानों की बनावट के अनुसार मन्द और मन्दतर और मन्दतम गिरती है, वैसे ही ज्ञान की प्रभा मतिज्ञानावरण आदि के उदय के तारतम्य के अनुसार मन्द, मन्दतर और मन्दतम होती है। ज्ञान पूर्ण रूप से तिरोहित कभी नहीं होता। यदि ऐसा हो जाए तो जीव अजीव हो जाए।
इस कर्म की स्थिति अधिकतम तीस कोटा - कोटि सागरोपम और न्यूनतम अन्तर्मुहूत की है।”
2. दर्शनावरण कर्म : पदार्थों की विशेषता को ग्रहण किए बिना केवल उनके सामान्य धर्म का बोध करना दर्शनोपयोग है। जिस कर्म के प्रभाव से दर्शनोपयोग आच्छादित हो जाता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है । दर्शन गुण के सीमित होने पर ज्ञानोपलब्धि का द्वार मन्द हो जाता है। इस कर्म की तुलना शासक के उस द्वारपाल से की गई है, जो शासक से किसी व्यक्ति को मिलने में बाधा उपस्थित करता है । द्वारपाल की आज्ञा के बिना व्यक्ति शासक से नहीं मिल सकता, वैसे ही दर्शनावरण कर्म वस्तुओं के सामान्यबोध को रोकता है । पदार्थों को देखने में बाधा डालता है।
दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैं. 1. चक्षु दर्शनावरण, 2. अचक्षु दर्शनावरण, 3. अवधि दर्शनावरण, 4. केवल दर्शनावरण, 5. निद्रा, 6. निद्रानिद्रा, 7. प्रचला, 8. प्रचला प्रचला व 9. स्त्यनर्द्धि 17
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चक्षु दर्शनावरण कर्म नेत्रों द्वारा होने वाले सामान्य बोध को आवृत करता है अवधि दर्शनावरण कर्म इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्यों का जो सामान्यबोध होता है, उसे आच्छादित करता है । केवल दर्शनावरण कर्म सर्वद्रव्य और पर्यायों के युगपत् होने वाले सामान्य अवबोध को आवृत करता है। निद्रा कर्म वह है, जिससे सुप्त प्राणी सुख से जाग सके, ऐसी हल्की निद्रा उत्पन्न हो । निद्रा - निद्रा कर्म से ऐसी नींद उत्पन्न होती है, जिससे सुप्त प्राणी कठिनाई से जाग