________________
जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 191
स्वर्ग और नरक में जाता है।
जैन दर्शन के कर्म-सिद्धान्त ने प्रस्तुत कथा का खण्डन करते हुए कहा है, कि ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है। आत्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है। जब आत्मा स्वभाव दशा में रमण करता है, तब उत्थान करता है और जब विभाव दशा में रमण करता है, तब उसका पतन होता है। विभाव दशा में रमण करने वाला आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष है और स्वभाव दशा में रमण करने वाला आत्मा कामधेनु और नन्दन वन है।
जैन दर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है, कि जो भी सुख-दुःख प्राप्त हो रहा है, उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा।' वैदिक और बौद्ध दर्शन की भांति वह कर्म के संविभाग में विश्वास नहीं करता। विश्वास ही नहीं, अपितु उस विचारधारा का खण्डन करता है। एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति से विभक्त नहीं किया जाएगा, तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है? पाप-पुण्य करेगा कोई और भोगेगा कोई और। यह सिद्धान्त युक्तियुक्त नहीं
है।
कर्मवाद का सिद्धान्त जीवन में आशा, उत्साह और स्फूर्ति का संचार करता है। उस पर पूर्ण विश्वास होने के बाद निराशा, अनुत्साह और आलस्य तो रह नहीं सकते। सुख-दुःख के झोंके आत्मा को विचलित नहीं कर सकते। कर्मवाद के अनुसार विकास की चरम सीमा को प्राप्त आत्मा ही ईश्वर है, परमात्मा है। हमारी शक्तियाँ कर्मों से आवृत हैं, अविकसित हैं। लेकिन आत्मबल से अध्यवसाय से कर्म का आवरण दूर हो सकता है और इन शक्तियों का विकास किया जा सकता है। विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर हम परमात्मा स्वरूप को भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक भव्य आत्मा प्रयास करके परमात्मा बन सकती है।
कर्म बंध के कारण : जीव के साथ कर्म का प्रवाह रूप से अनादि सम्बन्ध है, किन्तु कर्म किन कारणों से बंधते हैं, यह एक सहज जिज्ञासा है। गौतम स्वामी ने प्रश्न किया - भगवान् जीव कर्म बन्ध कैसे करता है?
भगवान ने उत्तर दिया - गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शन मोह का उदय होता है। दर्शन मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यात्व के तीव्र उदय से जीव आठ प्रकार के कर्मों को बाँधता है।
स्थानांग, समवायांग में तथा उमास्वाति ने कर्म कर्मबन्ध के कारण पाँच आस्रवों को बताया है - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। संक्षेप दृष्टि से कर्मबंध के दो कारण हैं - कषाय व योग।
कर्म बंध के चार भेद हैं - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। इनमें प्रकृति