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188 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सकता है। उस अवस्था में कर्म, प्रदेशों से उदित होकर ही निर्जीण हो जाते हैं । उसकी कालिक मर्यादा (स्थितिकाल ) को कम करके शीघ्र उदय में भी लाया जा सकता है। नियत काल से पूर्व कर्मों को उदय में ले आना 'उदीरणा' कहलाता है ।"
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'पातंजल योग' भाष्य में भी अदृष्ट जन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ निरुपित की हैं। उनमें से एक गति यह है - " कई कर्म बिना फल दिए ही प्रायश्चित आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।" इसे जैन पारिभाषिक शब्दों में प्रदेशोदय कहा है।
कर्मबन्ध सहेतुक है। जब तक कर्म बन्ध का कारण विद्यमान रहता है, तब तक कर्म बंधता जाता है और अपना फल देने की अवधि पूर्ण होने पर अलग हो जाता है। जब आत्मा कर्म बन्ध का द्वार रोक देती है, कर्म बन्ध के कारण भूत आश्रव का निरोध कर देती है, उस समय कर्म बंध रूक जाता है। 12 जो कर्म पहले के बंधे हुए होते हैं, वे उदय में आकर नष्ट हो जाते हैं या उदीरणा से उदय में लाकर नष्ट कर दिये जाते हैं और तब आत्मा की मुक्ति हो जाती है ।
तब
इस प्रसंग में एक शंका उत्पन्न होती है, कि कर्म तो पौद्गलिक है, जड़ है, वे स्वयं यथोचित फल कैसे दे सकते हैं?
यह सही है, कि कर्म पुद्गल यह नहीं जानते हैं, कि अमुक आत्मा ने यह काम किया है, अतः उसे यह फल दिया जाए। परन्तु आत्मा की क्रिया के द्वारा जो शुभाशुभ पुद्गल आकृष्ट होते हैं, उसके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है, जिससे आत्मा को उसके कर्मानुसार फल मिल जाता है। जैसे सैंकड़ों गायों के झुण्ड में बछड़ा अपनी माँ (गाय) को ढूँढ़ लेता है, वैसे कर्म पुद्गल भी अपने कर्ता आत्मा तक पहुँच ही जाते हैं।
आज पराकाष्ठा पर पहुँचे भौतिक विज्ञान के युग में तो इसे समझना बहुत ही सहज है। सब जड़ वस्तुओं का संचालन ऑटोमेटिक होता है, ठीक समय पर ठीक जगह पर बम फटते हैं। बिना चालक के वाहन बम बरसाकर वापस अपने स्थान पर निश्चित अवधि में पहुँच जाते हैं। अंतरिक्ष में आरोपित यंत्र अपने आप धरती पर सूचना भेजते हैं। जड़ पुद्गल जड़ पर तो स्वतः असर करते ही हैं, पर वे चैतन्य पर भी असर डालते हैं।
जड़ पुद्गल बड़ी क्षमता से चेतना को प्रभावित करते हैं। जैसे शराब का नशा होते ही चेतना अपना होश खो देती है। पूर्ण चेतना भी जब क्लोरोफॉर्म सूंघ लेता है, तो निश्चेतन सा बन जाता है। यहाँ विवेच्य विषय यह है, कि जड़ शराब यह नहीं जानती, कि उससे व्यक्ति बेहोश होता है और उसे किसे बेहोश करना है। लेकिन जो व्यक्ति उसका सेवन करता है, वह उसी को बेहोश करती है, किसी अन्य को नहीं, यद्यपि वह उस व्यक्ति को जानती नहीं है । इसी प्रकार कर्म भी जिस आत्मा द्वारा किए जाते हैं, उसी को फलित होते हैं, अन्य को नहीं । तात्पर्य यह है, कि जड़ में भी अपना