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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 183
करती है, जब समान साधन और समान परिस्थिति होने पर भी फल में वैषम्य आता है। एक ही घर में एक ही माता के दो पुत्रों में से एक राजा बनता है, दूसरा चौकीदार बनता है। एक गुरु के समीप एक समान वातावरण में तुल्य-भाव और वात्सल्य में अध्ययन करने वाले शिष्यों में से एक तलस्पर्शी ज्ञानी बन जाता है और दूसरा मति मंद ही रह जाता है। सामान्य घर में जन्मा व्यक्ति वैभवशाली लक्ष्मीपति बन जाता है
और सिंहासनारुढ़ शासक दीन-दरिद्र बन जाता है, जैसे सद्दाम हुसैन। इन सब परिवर्तनों, विषमताओं का मूल कारण क्या है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
भारत के मननशील मनीषियों ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है-विषमता और विविधता का मूल कर्म है। कर्म से ही विविधता और विषमता उत्पन्न होती है। जैन दर्शन की तरह बौद्ध दर्शन, न्याय दर्शन, वेदान्त दर्शन प्रभृति भी कर्म को ही जीव की विविध अवस्थाओं का कारण मानते हैं। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है, कि जैसा बीज होगा, वैसा ही वृक्ष होगा। जैसा कि न्याय दर्शन के मत में कर्म को ही शरीर व इन्द्रियों की उत्पत्ति का कारण बताया है। परमाणु संयोग के कारण सृष्टि का कारण भी कर्म है। सांख्य दर्शन के अनुसार कर्मों के कारण प्रकृति में विविधता आ जाती है, “कर्म निमित्त योगाच्चं, कर्म वैचित्र्यात्सु सृष्टि वैचित्र्यम् चिदवसाना, भुक्तिस्ततकर्मोज तत्वात्। अर्थात् चेतन द्वारा अर्जित कर्मों से भोगों की प्राप्ति और समाप्ति पर, आत्मा को कर्मों का कर्त्ता एवं कर्मों को भोगोत्पादक बताया है।
इस प्रकार सर्वत्र विश्व में व्याप्त विचित्रता एवं विविधता ही कर्म के अस्तित्व का प्रमाण है। सौ टंच स्वर्ण में कोई भेद नहीं होता, किन्तु विजातीय तत्वों के सम्मिश्रण के कारण उसमें भेद होता है। वैसे ही निश्चय दृष्टि से आत्माएँ एक हैं, किन्तु जो विविधता और भेद है, वह कर्म रूपी विजातीय तत्व के कारण से है।
कर्म की पौद्गलिकता : कर्म को कुछ दार्शनिक आत्मा का गुण मानते हैं, जैसे न्याय दर्शन। कुछ दार्शनिक कर्म को संस्कार और वासना रूप मानते हैं, जैसे सांख्य एवं बौद्ध दर्शन। जैन दर्शन इसके विपरीत कर्म को पौद्गलिक मानता है। कर्म आत्मा का गुण नहीं वरन् आत्मगुणों का विघातक है। परतंत्र बनाने वाला और दुःखों का कारण है। यह तथ्य है, कि 'जिस वस्तु का जो गुण है, वह उसका विघातक नहीं होता। कर्म आत्मा का विघातक है। अतः आत्मा का गुण नहीं हो सकता। कर्म पौद्गलिक न होता, तो वह आत्मा की पराधीनता का कारण नहीं हो सकता था।'
___जैन दर्शन की दृष्टि से द्रव्य कर्म पौद्गलिक है। पुद्गल मूर्त ही होता है। उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-ये चार गुण होते हैं। जिसका कारण पौद्गलिक होता है। जैसे कपास भौतिक है, तो उससे बनने वाला वस्त्र भी भौतिक ही होगा। जैसे कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है, वैसे ही कारण से कार्य का अनुमान भी किया जा सकता है। शरीर आदि कार्य पौद्गलिक एवं मूर्त हैं, अत: उसका कारण