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जैन दार्शनिक सिद्धान्त 181
अणुओं के साहचर्य से विकृत बन जाता है। अपने रूप को विस्मृत कर दूसरे ही रूप को धारण कर लेता है, उसी प्रकार कर्म के संयोग से आत्मा भी विचित्र बन जाती है, नट की तरह नये-नये रूप बनाती है। तरह-तरह के अभिनय करती है। लेकिन जब वह कर्म के कारागृह से मुक्त हो जाती है, तब उसका रूप अप्रतिम हो जाता है । आत्मा की जितनी अवस्थाएँ होती हैं, वे सब कर्मजन्य हैं। कर्मोदय और कर्मक्षयोपशम से ही उसे विभिन्न प्रकार की सामग्री मिलती है।
शुभ कर्म के उदय से जीव को सितारे के समान चमकता जीवन, मधु सा मधुर व्यक्तित्व मिलता है और अशुभ कर्म के उदय से नमक के समान कड़वा जीवन, पत्थर सा निस्तेज व्यक्तित्व मिलता है । कर्मों के आधार पर प्राणी विशाल वैभव और प्रचुर ऐश्वर्य का स्वामी बनता है, और कर्मों के आधार पर ही हीन, दीन, घर-घर भीख मांगने वाला भिखमंगा बनता है। कर्म से ही स्वस्थ, सुडौल, सुन्दर और आकर्षक शरीर प्राप्त होता है और उससे ही घृणास्पद तन की प्राप्ति होती है । विद्वता, वाग्मिता, गायकता, स्वभाव - मधुरता आदि सद्गुण कर्म - क्षयोपशम और कर्मोदय से मिलते हैं। वैसे ही मूढ़ता, मंदता और प्रकृति - चंडता भी कर्मों के द्वारा ही मिलती है । व्यक्ति सम्राट भी कर्म से बनता है और दास भी कर्म से ही बनता है ।
जीव को समस्त सुख-दुःख उसके स्वयं के ही पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप मिलते हैं। जैन दर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है, कि जो भी सुख - दुःख प्राप्त हो रहा है, उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। आत्मा जैसा कर्म करेगा, वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा।" जीव ने जो कर्म बाँधा है उसे इस जन्म में अथवा आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है।" आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं का सम्बन्ध होना, नीर-क्षीरवत् एकमेक हो जाना कर्म-बन्ध है ।" कर्म से बंधा हुआ जीव अपने कर्मानुसार ही जीवन प्राप्त करता है।
कर्म के भेद : जैन दर्शन में कर्म दो प्रकार के कहे गये हैं- 1. द्रव्य कर्म और 2. भाव कर्म ।
सांसारिक जीव का रागद्वेषमय वैभाविक परिणाम भावकर्म हैं और उन वैभाविक परिणामों से आत्मा में जो कार्मण वर्गणा के पुद्गल सर्वात्मना चिपकते हैं, वे द्रव्य कर्म हैं । दूसरे शब्दों में आत्म प्रकृति के द्वारा आकृष्ट परमाणु ग्रहण भाव कर्म है तथा जीव का आचरण द्रव्य कर्म है। आचरण के सम्बन्ध में भगवान महावीर ने कहा है-‘“मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है।”” जैसे कि समता के आचरण से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य की साधना से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की आराधना - मनन से मुनि होता है और तपश्चरण से तापस होता है।" जो मूल कर्म आचार से शून्य होता है और बाह्य क्रिया करता है, वह तद्वान नहीं हो पाता है । “सिर मूंड लेने से कोई