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________________ 174 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन कृषक जीवन समृद्ध और सम्पन्न था। नागरिक जीवन की अर्थव्यवस्था भी समृद्ध थी । व्यवसाय का पूर्णतया प्रचार था, उन्नत अट्टालिकाएँ, नाना प्रकार के वस्त्राभूषण एवं विविध प्रकार के भोगोपभोग के पदार्थ जीवन में आनन्द और उमंग का सृजन करते थे । इससे स्पष्ट है, कि नगरों की अर्थव्यवस्था बहुत ही समृद्ध थी । तात्कालिक समृद्धि का वर्णन करते हुए उस समय लोगों द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों एवं गमनागमन के लिए प्रयुक्त वाहनों आदि का उल्लेख किया गया है।" उस समय लोग मणिकुण्डल, मुद्रिका, हार यष्टि, कटक, केयूर, अंगद, तुलाकोटिक, कण्ठिका, चूड़ारत्न, मुक्तादाम, काञ्ची, उत्तंस, चूड़ामणि, मणिहार, रत्नकुण्डल, हारलता, कण्ठाभरण, नक्षत्र, मालहार, विजयछन्दहार, मकराकृति कुण्डल आदि अनेक प्रकार के आभूषण धारण करते थे । इन आभूषणों के अध्ययन से भारत की तात्कालिक समृद्धि का पूर्ण चित्र उपलब्ध होता है। वाहन के हेतु प्रयुक्त होने वाले गज, अश्व, रथ आदि भी समृद्ध जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं । भरत चक्रवर्ती के सन्दर्भ में ऐसा उल्लेख मिलता है, कि उन्हें अष्टसिद्धियाँ एवं नवनिधियाँ प्राप्त थीं। अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईश्वरत्व, वशित्व आदि अष्ट सिद्धियाँ हैं । भौतिक दृष्टि से सुख समृद्धि के सभी साधन उन्हें उपलब्ध थे । भरत चक्रवर्ती को अष्ट सिद्धियों के साथ चौदह रत्न एवं नव निधियाँ भी प्राप्त थे। चौदह रत्नों की सहायता से उन्हें सभी प्रकार की भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त थी । निधियों का आधुनिक दृष्टि से अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है, कि ये निधियाँ शिल्पशालाएँ (Factories) थी । काल नामक निधि में ग्रन्थ मुद्रण या ग्रन्थ लेखन का कार्य होता था । साथ ही वाद्य भी इसी शिल्पशाला द्वारा उत्पन्न किये जाते थे । महाकाल निधि शिल्पशाला में विविध प्रकार के आयुद्ध तैयार किए जाते थे । नैसर्प्य निधि में शय्या, आसन एवं भवनों के उपकरण तैयार किये जाते थे। भवन बनाने का कार्य भी इसी शिल्पशाला द्वारा सम्पन्न होता था । विभिन्न प्रकार के धान्यों एवं रसों की उत्पत्ति पाण्डुका निधि उद्योग व्यवसाय द्वारा सम्पन्न होती थी । पद्म निधि नामक व्यवसाय केन्द्र से रेशमी एवं सूती वस्त्र तैयार होते थे । दिव्याभरण एवं धातु सम्बन्धी कार्य पिङ्गल नामक व्यवसाय केन्द्र में सम्पन्न किये जाते थे । माणव निधि उद्योग गृह से शस्त्रों की प्राप्ति होती थी । प्रदक्षिणावर्त नामक उद्योगशाला में सुवर्ण तैयार किया जाता था। शंख नामक उद्योगशाला में स्वर्ण की सफाई कर उसे शुद्ध रूप में उपस्थित किया जाता था। सर्वरत्न नामक उद्योगशाला में नील, पद्मराग, मरकतमणि, माणिक्य आदि विभिन्न प्रकार की मणियों को खान से निकालकर उन्हें सुसंस्कृत रूप में उपस्थित करने का कार्य करती थी । इस प्रकार भरत चक्रवर्ती के यहाँ नव प्रकार उद्योगशालाएँ थी । निधि का समाजशास्त्रीय अर्थ उद्योगशाला है, क्योंकि निधियों के जिन कार्यों का वर्णन हुआ है, वे सभी कार्य उद्योग शालाओं द्वारा ही सम्पन्न किये जा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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