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सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव 145
था। माता-पिता को केवल कन्या के विवाह की ही चिन्ता नहीं रहती थी, अपितु वे उसे पूर्ण विदुषी और कला प्रवीणा बनाते थे । यद्यपि कन्याओं की शिक्षा, पुत्रों की शिक्षा से भिन्न प्रकार की होती थी ।
शिक्षा के पश्चात् त्रिवाह के अवसर पर कन्याओं को वर-वरण की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। किन्तु विवाह करना परमावश्यक नहीं माना जाता था । कन्याएँ आजीवन अविवाहिता रहकर समाज सेवा करते हुए आत्म कल्याण कर सकती थी, जैसे ब्राह्मी व सुन्दरी ने किया। इसके अतिरिक्त कन्या का विवाह के पूर्व तक ही पैतृक सम्पत्ति में अधिकार होता था ।
विवाह के पश्चात् वधु गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट गृहिणी- पद प्राप्त करती थी । विवाहित स्त्री अपने परिवार की सब प्रकार से व्यवस्था करती थी । गृहिणी गृहपति की सेवा सुश्रुषा तो करती ही थी, पर उसके कार्यों में भी सहयोग देती थी । विवाहिता नारी को घूमने-फिरने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी । ये अपने पतियों के साथ वन विहार, जलविहार के लिए जाती थी। विवाहिता नारियाँ व्रत उपवास अत्यधिक करती थीं । बड़े-बड़े व्रतों को किया करती थी- यथा पंचकल्याणक व्रत, सोलह कारण व्रत, जिनेन्द्र गुण सम्पत्तिव्रत करने की प्रथा प्रचलित थी। परिवार में धर्मात्मा और विदुषी गृहिणियों का अधिक सम्मान होता था । स्त्रियों का अपमान समाज में महान् अपराध माना जाता था। पति स्त्री के भरण-पोषण के साथ उसका संरक्षण भी करता था ।
जननी रूप में नारी को बड़े आदर की दृष्टि से देखा गया है। ऋषभदेव की माता मरुदेवी की स्तुति में कहा गया है, जो माता तीर्थंकर और चक्रवर्ती को जन्म देती हैं, उस माता के महत्त्व का मूल्यांकन कौन कर सकता है। गृहस्थावस्था में जिस जननी का तीर्थंकर ने पादवन्दन किया है, उसकी पवित्रता वचानातीत है। माता बनने
पूर्व गर्भवती स्त्री का विशेष ध्यान रखा जाता है तथा उसके दोहद को पूर्ण करना प्रत्येक पति का परम कर्तव्य होता है ।"
नारी की उन्नत सामाजिक स्थिति का तो हमने अवलोकन किया है, किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी हैं। इस संस्कृति के दूसरे पलड़े में कुछ ऐसे तत्त्व भी थे, जिन्होंने नारी की स्थिति को हीन किया था। समाज में प्रचलित बहुविवाह एवं बालविवाह ये दोनों ऐसी प्रथाएँ थी जिन्होंने नारी की स्थिति को हीन किया था। जैन संस्कृति में नारी को स्वभावतः चंचल, कपटी, क्रोधी और मायाचारिणी बताते हुए पुरुषों को उनसे सावधान रहने का उपदेश दिया गया है । गृहिणी रूप में नारी वासना और आसक्ति का केन्द्र मानी गयी है, पर इतना स्पष्ट है, कि आत्मोत्थान करने वाली नारी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी ।
समाज में विधवा नारीयों की स्थिति कभी भी अधिक सम्मानजनक नहीं रही । विधवा को अनाथ और बलहीन समझा जाता था । विधवाएँ अपना जीवन समाज