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138* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सम्पन्न कराके व्रत देना चाहिये। अनन्तर मौजी बन्धन के पश्चात् श्वेत धोती और दुपट्टाधारी, अविकारी वेशवाला वह बालक व्रतचिह्न से विभूषित होकर ब्रह्मचारी कहलाता है। इस अवस्था में उसके चोटी भी रहती है। व्रत चिह्नों में सात लरका यज्ञोपवीत प्रधान रूप से रहता है। ब्रह्मचारी भिक्षावत्ति से निर्वाह करता है। भिक्षा में जो कुछ प्राप्त हो, उसका कुछ हिस्सा देव को अर्पण कर शेष बचे हुए योग्य अन्न का स्वयं भोजन करता है। सिर के बालों का मुण्डन कराना भी आवश्यक है, इससे मन, वचन और काय पवित्र रहते हैं।'
विद्याध्ययन करते समय ब्रह्मचारी को वृक्ष की दातोन करना, ताम्बूल सेवन करना, अंजन लगाना, उबटन लगाकर स्नान करना, पलंग पर शयन करना, दूसरे के शरीर से अपने शरीर को रगड़ना आदि कार्यों का त्याग करना चाहिये। प्रतिदिन स्नान करना, शरीर को शुद्ध रखना तथा पृथ्वी पर शयन करना आवश्यक है। जब तक विद्या समाप्त न हो जाए ब्रह्मचर्य, संयम एवं व्रत धारण करना आवश्यक है।
विद्यारम्भ करते समय सर्वप्रथम ब्रह्मचारी को गुरुमुख से श्रावकाचार का अध्ययन करना और तदनन्तर विनय पूर्वक आध्यात्मशास्त्र पढ़ना आवश्यक है। आचार एवं आध्यात्मशास्त्र का ज्ञान प्राप्त होने पर विद्वता और पाण्डित्य की प्राप्ति के लिए व्याकरण शास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र और गणितशास्त्र आदि विषय और शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये।" ब्रह्मचर्य आश्रम विद्यार्जन के लिए नियत है। संसार की समस्त कामनाओं और इच्छाओं का त्यागकर ज्ञानी बनना और श्रम करने की प्रवृत्ति ग्रहण करना इस आश्रम का ध्येय है।
ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति के पश्चात् अध्ययन के समय ग्रहण किये गये व्रतों का त्याग हो जाता है, किंतु जीवन के लिए उपादेय व्रत बने रहते हैं। आदि पुराण में कहा गया है, कि मधु, मांस, पंच उदुम्बर फलों एवं हिंसादि पाँच स्थूल पापों का त्याग जीवन पर्यन्त के लिए कर देना चाहिये।"
2. गृहस्थः ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात् गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया जाता है। जिन माल्याम्बर, आभूषण, पुष्प, ताम्बूल आदि पदार्थों के सेवन का त्याग किया गया था, उन पदार्थों को अब गुरु की आज्ञापूर्वक ग्रहण किया जा सकता है। विवाह हो जाने पर गृहस्थ अतिथि सत्कार, दान, पूजा, परोपकार आदि कार्यों को उत्साहपूर्वक सम्पन्न करता है। गृहस्थाश्रम को समाज-सेवा का साधन माना गया है। लौकिक दृष्टि से इसी आश्रम पर अन्य तीनों आश्रमों का अस्तित्व निर्भर करता है। मुनि, क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिका, प्रभृति त्यागी वर्ग श्रावकों के ही ऊपर अवलम्बित है। श्रावक को अपना आचार-व्यवहार इतना परिष्कृत कर लेना पड़ता है, कि वह समय आने पर सन्यासी बन सके। अर्थात् सांसारिक भोगों का सेवन करते हुए भी इन्द्रिय संयम की आवश्यकता है।