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सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव * 135
4. वर्ण और जाति संस्था : वर्ण और जाति दोनों भिन्नार्थक शब्द है। आदि पुराण के अनुसार जाति और वर्ण में अन्तर माना गया है। एक ही वर्ण के अन्तर्गत कई जातियाँ एवं उपजातियाँ पायी जाती है। अतः वर्ण व्याप्य है और जाति व्यापक। यों तो आदिपुराण में वर्ण और जाति सामान्यतः एकार्थक हैं, किन्तु सामाजिक दृष्टि से वर्ण का आधार आजीविका है और जाति का आधार विवाह आदि सामान्य मान्यताएँ हैं। आदि पुराण में चार वर्ण मानकर उन्हीं को जाति रूप में प्रतिपादित किया है। जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, पर आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण जाति चार प्रकार की होती है। व्रत संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति अथवा नीचवृत्ति का आश्रय लेने से शूद्र कहलाता है।'
आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी। भरत ने व्रतसंस्कार की अपेक्षा ग्रहण कर ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की।
ब्राह्मण : आदिपुराण के अनुसार तप और शास्त्र ज्ञान को धारण करने वाले ही ब्राह्मण होते हैं। जो इन दोनों से रहित है, वह केवल जाति ब्राह्मण कहलाता है। वस्तुतः व्रत संस्कारों से ही व्यक्ति ब्राह्मण कहा जाता है। शास्त्र ज्ञान के माध्यम से ही ब्राह्मण अपनी आजीविका चलाता है।
क्षत्रिय : शस्त्रधारण कर आजीविका चलाने वाले क्षत्रिय कहलाते हैं। आदिपुराण में बताया गया है, कि दुःखी प्रजा की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है। क्षत्रियों के पाँच धर्म बताये गये हैं - 1. कुल पालन : कुलाम्नाय की रक्षा करना और कुल के योग्य आचरण
करना। 2. बुद्धिपालन : तत्त्वज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति करना और विवेकबुद्धि धारण
करना। 3. आत्मरक्षा : रक्षण में उद्यत व्यक्ति ही स्वरक्षा करता है। 4. प्रजारक्षा : प्रजा की रक्षा करने वाला ही क्षत्रिय कहलाता है। 5. समञ्जत्व : दुष्ट पुरुषों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन करना।
पक्षपात रहित हो प्रजा का रक्षण करना।
भरत चक्रवर्ती ने क्षात्र धर्म का उपदेश देते हुए बताया है, कि प्रजा के लिए न्यायपूर्वक वृत्ति रखना ही क्षत्रियों का योग्य आचरण है। धर्म का उल्लंघन न कर धन कमाना, रक्षा करना, बढ़ाना और योग्य पात्र को दान देना हो क्षत्रियों का न्याय है। क्षत्रिय वर्ण के व्यक्तियों को अपने वंश की शुद्धि के लिए स्वधर्म में रत रहना चाहिये, अन्य धर्मावलम्बियों के शेषाक्षत भी नहीं ग्रहण करने चाहिये।
भरत के क्षात्र धर्म का सार यह है, कि क्षत्रिय समस्त वर्गों में उत्तम और उन्नत