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नीच के देह में कोई निशान नहीं होता है हीन आचार वाला ही नचि है ।
चातुर्वण्यं यथा यच्च, चाण्डालादि विशेषणम् | सर्व माचार भेदेन, प्रसिध्धं भुवने गतं ॥
चारो वर्ण आचार भेद के कारण बने हैं ।
( भा० रविषेण कृत पद्म चरित्र )
नब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति । न क्षत्रियो नापि चवैश्य शूद्रे ॥
( वरांग चरित्र २५-४१ )
पहिले तीन आरे में भोग भूमि के मनुष्य थे जो उच्च गोत्री थे बाद में कर्म भूमि में उन्हीं की ही सन्तान उच्च नीच एवं दो गोत्र वाली बन गई है छठे आरे में सब नीच गोत्री हो जावेंगे । तत्पश्चात् उन्हीं की संतान फिर दोनों गोत्र वाली बन जायगी और भोग भूमि का प्रारम्भ होते ही सब उच्च गोत्री बन जावेंगे। सारांश संतान परम्परा में उच्च नीच गोत्र का परिवर्तन होता रहता है ।
( गोम्मट सार,
कर्मकांड, गा० २८५ वगैरह ) नेक्ष्वाकु कुलाद्युत्पत्तौ ( उच्चैर्गोत्रस्य ) व्यापारः । काल्पनिकानां तेषां परमार्थं तोऽसत्वात् ।
इश्वाकु कुल वगैरह काल्पनिक हैं परमार्थ से असत् है ।
(पट खंडागम खं० ४ अधि० ५ सू० १२९ की आ० वीरसेन कृत धवला टीका) मनुष्य जातिरेकैव जातिनामो दयोद्भवा ।
वृत्तिभेदा हि, तद्भेदाच्चातुर्विध्य मिहाश्नुते ॥ ४५ ॥
जाति नाम कर्म के उदय से मनुष्य की एक ही जाति है और
ब्राह्मण वगैरह जातियां तो पेशा के अनुसार बनी हुई हैं ।