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यह हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती। --- यदि जिनसूत्र मुल्लंघते तदाऽऽस्तिकैयुक्तिवचनेन निषेधनीयाः तथापि यदि कदाग्रह न मुञ्चन्ति तदा समथै रास्तिकैः उपानद्रि मूंथ लिप्तामिः मुखे तानियाः, तत्र पापं नास्ति । - - उफ्तं चोत्तर पुराणस्य वर्द्धमान पुराण- सोपि पापः स्वयं क्रोधा दरुणी भूत वीक्षणः।
उद्यमी पिंड माहर्तु, प्रस्फुरद्दशन च्छदः ॥ १॥
सोढुं नदक्षमः कश्चिद्, असुरः शुद्धदृक् तथा।:: - हनिष्यति तमन्याय, शक्तः सन् सहते. नहि ॥२॥
सोपि रत्नप्रभां गत्वा, सागरोपम जीक्तिः । ..." . चिरं चतुर्मुखो दुःख, लोभादनु भविष्यति ॥ ३॥ "धर्मनिर्मूल विध्वंसं, सहन्ते न प्रभावकाः । "नास्ति सावद्यलेशन, विना धर्म प्रभावना" ॥ ४ ॥ धर्मध्वंसे सतां ध्वंसः, तस्माद् धर्मद्रुहो ऽधमान् ॥
निवारयन्ति ये सन्तो, रक्षितं तैः सतां जगत् ॥५॥ . (दर्शन प्राभृत गा० २ की श्रुत सागरी टीका पृ० ४)
जैन-तब तो श्राप अपवाद को धर्म मानने के पक्ष में हैं
दिगम्बर--उपसर्ग और अपवाद को इन्साफ न देने से हमारे दिगम्बर समाज की कैसी दुर्दशा हुई है। उसका यथार्थ स्वरूप दिगम्बर विद्वान् प्रो० प्रा० ने० उपाध्ये M.A. फाइनल इस प्रकार बताते हैं। : "श्राचार शास्त्र में बार्णित उत्सर्ग और और अपवाद मागों के
आधार पर यह कहा जा सकता है कि साधु समुदाय में इस श्रम साध्य प्रबन्ध ने मतभेद के लिये बड़ा अवसर दिया. जब किसी प्रधान, प्राचार्य का स्वर्गवास हो जाता था तब सर्वदा
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