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जैन-सब तीर्थकर भगवान् ‘सम्मेतशिखर' से ही मोक्ष पावे, यह अनादि नियम होता तो उस पहाड़का वास्तविक नाम ही "जिनमुक्तिगिरि" होना चाहिये था। इतना ही क्यों ! सिद्धशिला में भी उसके उपरका भाग 'जिनेन्द्रसिद्धशिला" ख्यात होना चाहिये था, मगर ऐसा कुछ है नहीं अतः तीर्थकरोका अमुक सीमीत स्थान से ही मोक्ष मान लेना, वास्तव में वही आश्चर्य है ॥५॥
दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि-(६) चक्रवतिओं का 'मानभंग' नहीं होना चाहिये, किन्तु भरतचक्रवर्तिका बाहुबली के द्वारा 'मानभंग' हुआ, वह छट्ठा आश्चर्य है।
जैन-चक्रवर्ति जन्म से चक्रवर्ति होता नहीं है, मगर अभिषेक होने के बाद ही वह चक्रवर्ति माना जाता है। अगर अभिषेक होने के बाद चक्रवर्ति का मानभंग होवे तो वहां आश्चर्य का अवकाश भी है, किन्तु उसके पहिले भावि-चक्रवति को कुछ भी सहना पड़े या शत्रुओ से लड़ना पडे तो उसमें आश्चर्य किस बातका?।
दूसरे २ शलाका पुरुषो के भी वैसे ही दृष्टान्त मीलते हैं। देखिए
भगवान पार्श्वनाथ को सर्वज्ञ होने से पहिले उपसर्ग हुआ।
ब्रह्मदत्त को चकवर्ति होनेसे पहिले अपने जीवको बचानेके लीये भागना पड़ा।
कृष्णवासुदेव को वासुदेव होने से पहिले जरासंघ के भय से मथुरा छोड़कर द्वारिका जाना पड़ा।
कृष्णवासुदेव को भगवान् नेमिनाथ से हार माननी पड़ी, माने मानमंग हुआ।
राज्य छोड़कर नीकले हुए चक्रवर्ति मुनि को परिषह और उपसर्ग भी होते हैं। चक्रवर्ति तो मरकर नरक में भी जाता है।
सारांश-चक्रवर्ति होने से पहिले भरत का चक्रवर्ती पद और मानभंग मानना ही फजूल है ॥६॥
दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि - (७) वासुदेव की मृत्यु भाई के हाथ से होनी नहीं चाहिये, किन्नु 'जरतकुमार'के हाथसे वासुदेवजी की मृत्यु हुई, यह सातवां आश्चर्य है।