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६- - द्वादशांगी जिनवाणी का आदिम अंग "श्री श्रायरंग सुत्त" में जैन निर्गन्थों को पाँच जाति के वस्त्रों की आज्ञा है विक्रमी दूसरी शताब्दी पर्यन्त के किसी भी ग्रन्थ में इसका विरोध नहीं किया गया। पहले पहल आचार्य कुन्द कुन्द ने "षट् प्राभृत" ग्रन्थ में इसका विरोध किया । इसी से स्पष्ट है कि उस समय पर्यन्त जैन श्रमण वस्त्र धारी थे और पाँच जाति के वस्त्र पहिनते थे किसी को नग्नता का आग्रह नहीं था । यकायक प्रा० कुन्द कन्द ने पाँच जाति के वस्त्र का निषेध लिखा और बाद के श्वेताम्बर आचार्यों ने भी एकान्त नग्नता तथा इस कृत्रिम नग्नता का विरोध किया । भूलना नहीं चाहिये कि वीर निर्वाण के ६०० वर्ष तक के किसी जैन श्रागम में दिगम्बर का विरोध नहीं है किन्तु बाद में ही श्वेताम्बर शास्त्रों में दिगम्बर विरोध लिखा गया है। जब दिगम्बर के प्राचीन या अर्वाचीन सब शास्त्रों में श्वेताम्बर का विरोध जोर शोर से किया गया है । इसीसे कौन साहित्य प्राचीन है और कौन अर्वाचीन है, यह निर्विवाद हो जाता है, और जिसका विरोध किया जाता है उसकी प्राचीनता भी स्वयं सिद्ध हो जाती हैं ।
च
सारांश यह है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी तक जैन शास्त्रों में वस्त्र का निषेध नहीं था । जैन मुनि वस्त्रधारी थे वस्त्र के एकांत विरोधी नहीं थे ।
दिगम्बर -- जैन मुनि का असली नाम निर्गन्थ है - निर्गन्थ का अर्थ यही होता है कि दिगम्बर ।
जैन -- दिगम्बर सम्मत शास्त्र पांच प्रकार के निर्गन्थ मानते हैं और ये सब वस्त्रधारी थे ऐसा साफ २ बताते हैं । देखिये
१ – पुलाक वकुश कुशील निर्गन्थस्नातका निर्गन्थाः ।