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कुष्माडे, ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीव देहत्वात् कपोतशरीरे । अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधम्र्म्यदेव कपोतकशरीरे - कूष्मांडफले एव । ते उपस्कृते- संस्कृते । तेहि नो अट्ठोत्ति बह्वपायत्वात् ।
माने - रंग की समता के कारण कूष्माण्ड फल ही कपोत कहे जाते है । रेवती श्राविकाने उनको संस्कार देकर रख छोडे थे ।
( आ• श्रीअभयदेवसूरीकृत भग० टीका पृ० ६९१) ( आ० श्रीदानशेखरसूरिकृत भग० टीका पृ० )
कूष्मांड फल का मुरबा दाह वगेरह रोग को शान्त करता है, यह बात आज भी ज्यों की त्यों सही मानी जाती है । आज भी आगरा वगेरह प्रदेश में गरमी की मोसम में कूष्मांड का मुरबा- - पेंठा वगेरहका अधिकांश इस्तिमाल किया जाता है । मेरठ जिल्ला में भी सफेद कुम्हडा जिसका दूसरा नाम कवेला हैं उसके पैठे बहौत खाये जाते हैं ।
सारांश- कूष्मांडा मुरबा, पेंठा, पाक वगेरह गरमी को शान्त करनेवाले हैं । और रेवती श्राविकाने भी भगवान् महावीरस्वामी के दाह रोग की शान्ति के लीये दुवेकवोयसरीरा माने "कूष्मांड फल का मुरबा” बनाकर रक्खाथा ।
यहां कवोय शब्द कूष्मांड फलका ही द्योतक है ।
(३) " सरीरा " शब्द पर विचार
" सरीरा" यह शब्द कवोय से निष्पन्न पुल्लिंगवाले द्रव्य का द्योतक है ।
यदि यहां "सरिराणि" शब्द प्रयोग होता तो उसका अर्थ पक्षिका सरीर भी करना पड़ता, क्योंकि नपुंसक शरीर शब्द ही शरीर या मुरदा के अर्थ में है । किन्तु शास्त्रनिर्माताको वह यहां अभीष्ट नहीं था, अत एव उन्होंने यहां नपुंसक “सरिराणि” प्रयोग लिया नहीं है ।
शास्त्रकार ने यहां पुल्लिंग में "सरीरा" शब्दप्रयोग किया है