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पगदीए अक्खलिओ, सव्वंतिदियंमि णवमुहुत्ताणि । सिरदि निरुपमाणो, दिव्वज्झुणी जाव जोजणयं ॥ ९०९ ॥ सेसेसुं समयेसुं, गणहर देविंद चक्कवट्टीणं । पहाणुरुवसमत्थं, दिव्वज्झणीए य सत्तभंगीहि ॥ ९०२ ॥ छदव्व णवपयत्थो, पंचडिकाय सततच्चाणि । णाणाविह हिं, दिव्वज्झणी भणइ भव्वाणं ॥ ९०३ ॥ | माने --तीर्थकर भगवान् दिव्यध्वनिसे उपदेश देते हैं, प्रश्नों का उत्तर देते हैं, मगर उनकी वह भाषा कंठ तालु आदिके व्यापार से रहित या निरक्षरी होती है ।
( तिलोय पण्णति, पर्व ४था ) जैन - तीर्थकर व केवली भगवान साक्षरी भाषामें हीं उपदेश देते हैं, अत एव हम समझते हैं लाभ उठाते हैं और प्रसन्न होते हैं । यदि वे निरक्षरी भाषामें बोलें और हम समझ न सकें तो उनके पास क्यों जाय ? इस हालत में बारहों पर्षदा तो सिर्फ दिखाव मात्र ही मानी जायगी ।
दिगम्बर - तीर्थकर भगवान निरक्षरी भाषा से उपदेश देते हैं उसको गणधर ही समझते हैं । और गणधर द्वारा हमें जिनवाणी का ज्ञान होता है । बिना गणधर तो तीर्थकर की वाणी खिरती ही नहीं है ।
भगवान महावीरस्वामी ऋजु वालुका नदी पर देवकृत समवसरन में उपदेश देते मगर गणधर हुए ही नहीं थे, अतः गणधर के अभाव में ६६ दीन तक उनकी वानी न खिरी ।
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जैन - तवतो हमको गणधर से ही लाभ होता है इस हालतमें जब तीर्थकर उपदेश देवें तो समवसरन में जाना फिजूल है और केवलीओको गणधर न होने के कारण घाणी खिरेगी ही नहीं, अतः उनके उपदेश में भी जाना फिजूल है । इसके अलावा यह भी मानना पडेगा कि तोर्थकर उपदेश देनेमें पराश्रित है । अफसोस । न मालूम ! यह बात दिगम्बर विद्वानों ने कैसे उठाई होगी ? दिगम्बर शास्त्र में भी बिना गणधर तीर्थकरों का उपदेश होने का स्पष्ट उल्लेख है । देखिए -