________________
२६
मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, बस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त वगैरह प्रकृतिओं का उदय है, जो प्रकृतियां औदारिक शरीरको व्यक्त करती हैं ।
(३) औदारिक काययोग, वचनयोग और मनोयोग होने के कारण "सयोगी" दशा है, जो औदारिक शरीर की ताईद करती है । (४) केवलि समुद्घात होता है, वह भी केवली के औदारिक शरीर के पक्ष में ही है ।
(५) वर्गणा भी औदारिक आदि आठ प्रकारकी ही हैं, उनसे अधिक वर्गणा नहीं है, और उन आठों में परमौदारिक नामवाली वर्गणा भी कोई नहीं है ।
(६) " ततो रालिय देहो”, माने - केवली भगवानको औदारिक शरीर है ।
(मूलाचार, परि० १२ गा० २०६ ) (७) कायजोगि - केवलीणं भण्णमाणे अत्थि एगं गुणट्ठाणं, एगो जीवसमासो दो वा, छपज्जन्तिओ, चत्तारिपाण दोपाण, खोण सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिदिय जादी, तसकाओ, ओरालिय मिस्स-कम्मइय कायजोगो, इदि तिण्णिजोग, अवगद वेदो ।
[छक्खंडागम, धवल टीका पु. २ पृ० ६४८ ]
(८) ओरालिय कायजोगीणं भण्णमाणे अत्थि तेरह गुणट्ठाणाणि, ++ ओरालिय कायजोगो ।
[छक्खंडागम धवलटीका, पु० २, पृ० ६४९] इन प्रमाणों से केवली भगवान के शरीर को औदारिक ही मानना प्रमाणसंगत है ।
दिगम्बर - केवली को तेरहवें गुणस्थान में वज्र ऋषभनाराच संहनन है, यह बात तो ठीक है । दिगम्बर शास्त्र भी ऐसा ही मानते है । देखिए -
।
अपूर्वकरणाख्ये, चानिवृत्तिकरणाभिधौ । सूक्ष्मादिसां परायाख्ये, क्षीणकषायनामनि ॥ १२७॥ सयोगे च गुणस्थाने, ह्याद्यं संहननं भवेत् । केवले क्षपकश्रेण्यारोहणे कृतयोगिनाम् ॥ १२८ ॥ क्षपकश्रेणी में ८ से १३ तक वज्रऋषभनाराच संहनन