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केवली भगवानको ६३ प्रकृतिके क्षय होनेसे शेष ८५ प्रकुं. तियां सत्ता में रहती हैं, वे ये हैं
५. शरीर, ५. बन्धन, ५ संघात, ६ संस्थान, ६ संहनन, ३ अंगोपांग, २० वर्णादि, २ शुभ, २ स्थिर, २ स्वर, २ देवगति देवानुपूर्वी २ विहायोगति, दुर्भग, निर्माण, अयश, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, ४ अगुरुलघु, एक वेदनीय, नीच गोत्र मनुष्यानुपूर्वी और १२ अयोग की उदय प्रकृतियां, इनमें से अन्तकी १३ प्रकृतियां अयोगि केवली को भी सत्ता में रहती हैं ।
(गोम्मटसार कर्म्मकांड गाथा ३४० - ३४१ ) (ब्र. शीतलप्रसादजीका मोक्षमार्ग प्रकाशक भा. २ पृ०८७) वेद से आहार तक की १० मार्गणाओं में, अपने २ गुण - स्थानकी सत्ता होती है ।
( गोम्मटसार, कर्मकांड, गा० ३५४, जीवकांड ५२३) इस तरह केवली भगवानके आहार की स्वीकृति दी गई है । विग्गहगदिमावण्णा, केवलिणो समुग्धदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारया जीवा ॥ ६६५॥
अर्थ - ९ विग्रह गतिवाले, २ केवली समुद्घातवाले केवली, ३ अजोगी केवली और ४ सिद्ध ए अणाहारी हैं इनके सिवाय के सब जीव आहारी हैं ।
(गोम्मटसार जीवकांड गाथा ६६५ ) दिगम्बर टीका - भाषाकारों ने इस गाथा के अर्थ में केवली भगवानका अलग नम्बर लगाकर पांच अणाहारी गिनाये हैं, मगर वह उनका केवलीभुक्ति - निषेधरूप ख्याल का ही परिणाम है ।
यदि केवली नामको अलग करके सब केवली अणाहारी मान लिये जाँय तो अकेले समुद्घात शब्द से सातों समुद्धातवाले अणाहारी माने जावेंगे और अजोगी शब्द से केवलज्ञानरहित किसी अयोगिकी कल्पना करनी पडेगी या पुनरुक्ति माननी पड़ेगी, जो कल्पना या मान्यता दिगम्बर शास्त्र से प्रतिकूल है ।
असल में आहारी और अणाहारीका विवेक किया जाय तोजीवों के १४ भेदो में से विग्रह गतिवाले ७ अपर्याप्त और केवली समुद्धीतवाले १ संज्ञी पर्याप्त एवं ८ ही अणाहारी होते हैं
(कर्मग्रन्थ, ४-१८)