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________________ [ १४ ] वृत्तिकरण के प्रथम भाग तक होते हैं । (गोम्म जीवकांड गा० ६४४ ) अनिर्वृति गुण स्थान में मैथुन विच्छेद होता है ( गोम्म० जीव० गा० ००१) मणुसिणि पमत्त विरदे, आहार दुगं तु णत्थि णियमेण । अवगद वेदे मणुसिरिण, सण्णा भूद गदिमाऽऽसेज्ज ॥ ७.४ ॥ मनुषिणी जब प्रमत्त गुण स्थान में होती है तब उसे आहार द्विक तो कतई होता ही नहीं है । और नवम गुण स्थान के ऊपर अवेदी हो जाती है तब भी वो भूतगति न्याय से “ मनुषिणी" संज्ञा वाली रहती है। (गोम्मट सार, जीवकाण्ड गा० ७१४) वेद से आहार तक की १० मार्गणा वाले ऊपर के गुणस्थान को प्राप्त करते हैं मगर विशेषता इतनी है कि नपुंसक और स्त्री छठे गुण स्थान में आहारद्विक को नहीं पाते हैं। (गोम्मटसार जीव० गा० ७२३ ) गोम्मटसार के कथन का सारांश यह है कि पुरुष स्त्री और नपुंसक ये सब क्षपकश्रेणी द्वारा मोक्ष में जाते हैं, किन्तु फरक इतना ही है कि स्त्री और नपुंसक को आहारक द्विक नहीं होता है स्वस्ववेदकषाय का क्षय वेद के क्षय के पूर्व ही हो जाता है, स्त्री और नपुंसक की संज्ञा अवेदी दशा में भी उन्हें दी जाती है और तीर्थकर पद नहीं होता है। ६-पा० कुन्द कुन्दजी ने "बोध प्राभृत" गा० ३३ में "ए" बताया है। उसकी "श्रुतसागरी" टीका में लिखा है कि वेए स्त्री; पु० नपुंसक वेदत्रय मध्ये ऽर्हतः कोपि वेदो नास्ति ___अरिहंत वेदरहित है (पृ० १०१)माने स्त्री पुरुष और नपुंसक ये तीनों है वे गुण स्थान के बाद अबेदी कहे जाते हैं और अवेदी ही मोच के अधिकारी है।
SR No.022844
Book TitleShwetambar Digambar Part 01 And 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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