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को अंतिम दशा तक पहुँचती है । और मोक्ष को पाती है। किन्तु अशुद्ध अध्यवसाय की अन्तिम मिा तक नहीं पहुँचता है इसलिय सातवी नारकी में नहीं जा सकती है। यह सप्रमाण वात है कि किसी में उर्ध्वगति की सामथ्य विशष है किसी में अधोगति की । अथवा यों भी कहा जाय कि किसी में बंध की सामर्थ्य विशेष है है किसी में निझरा की, तो भी ठीक है । स्त्रीका शरीर उत्कृष्ट श्रायु बंध के अभाव का उर्ध्व गति के, अधिक सामर्थ्य का, या उत्कृष्ट निरा शक्ति का नमूना है। स्त्री की अशुद्ध भावना अन्तिम सीमा तक नहीं पहुँचती है।
परमाधामी पुरुष ही होता है स्त्री नहीं होती है, यह समस्या भी स्त्री जाति में आन्तरिक क्रूरता न होने का प्रवल प्रमाण
दिगम्बर-स्त्री में शुद्ध भावना की विशेषता है और अशुद्ध भावना की अल्पता या मर्यादा है, इस के लिये प्रमाण क्या है !
जैन-आज कल का विज्ञान भी उक्त वात को ही पुष्ट करता है । पाश्चात्य विद्वान मानते हैं कि स्त्री नम्र होती है । मातृत्व भावना से श्रोत प्रोत रहती है। वह सर्वत्र अशान्ति के बजाय शान्ति को ही अधिक पसंद करती है । इस विषय में जनवरी सन् १९३८ ई० के "माडन रीव्यू" में भिन्न २ विद्वानों के मत प्रकाशित हुए हैं (पृ. २७ ) जिनका सार निम्न प्रकार है।
स्त्री की हर एक अंगोपांग पुरुष की अपेक्षा भिन्न बनाबट का है x x इसलिये स्त्रियों के शरीर में मधुरता व नम्रता अधिक पाई जाती है।
शारीरिक कमी होने पर भी स्त्रियों में वीरता व साहस पाया जाता है। जब संकट आता है तब स्त्री दृढ़ रहती है. शत्रुत्रों से