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[...] वेद कषाय में परिवर्तन नहीं होता है, और ऐसा करने को कोई शास्त्रीय प्रमाण भी नहीं मिलता है । अप्राकृतिक सेवन तो व्यवहार में भी अधमाधम माना जाता है। ऐसा पुरुष तो समवेदी स्त्री से भी गया गुजरा माना जाता है । मगर वह "स्त्री वेदी" ही बन जाय फिर तो पूछना ही क्या ?
वास्तव में शरीर और वेदों में विषमता नहीं हो सकती है। श्रा० नेमिचन्दसूरि साफ लिखते हैं कि-सामान्यतया १२२ उदय प्रकृति में से मनुष्य गति में पाठों कर्मों की क्रमशः ५, ६, २, २८, 1, ५०. २ और ५ एवं १०२ प्रकृति का उदय होता है, पर्याप्त अप. र्याप्त और तीन वेद इत्यादि सब इनमें शामिल हैं।
"पज्जत्ते वि य इत्थी वेदाऽपज्जति परिहीणो" ॥३०॥
अर्थ-पर्याप्त पुरुष ( मनुष्य ) को स्त्रीवेद और अपर्याप्ति सिवाय की १०० प्रकृति का उदय हो सकता है । माने-पुरुष को सारी जिन्दगी में कभी भी स्त्री वेद का उदय नहीं होता है।
(गोम्मटसार, कर्मकार, गा• ३..) मणुसिणीए त्थीसहिदा, तित्थयराहारपुरिस
सदणा ॥ ३०१॥ अर्थ-पर्याप्ता मनूषीणी को स्त्री वेद का उदय है, किन्तु अपर्याप्ति, तिर्थकर नाम कर्म, आहारक द्विक, पुरुषवेद, और नपुंसक वेद सिवाय की १६ प्रकृति का उदय हो सकता है । माने स्त्री को सारी जिन्दगी में कभी भी पुंवेद या नपुंवेद का उदय होता नहीं हैं, छठे गुणस्थान में जाने पर आहारक द्विक का उदय नहीं होता है। तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति होने पर तिर्थकर पद का उदय नहीं होता है।
(गोम्मउमार, कर्मकार, गा )