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[११] इनमें मूकता, अंधता इत्यादि पाये जाते हैं, उसी तरह लिंगभेद भी पाये जाते हैं, जो द्रव्यवेद नहीं किन्तु "नोकर्म" द्रव्य है। भैंस का दही निद्रा का "नोकर्म" है, इसी प्रकार तीनों लिंग क्रमशः तीनों वेद के "नो कर्म" द्रव्य हैं, यह सर्व साधारण दिगम्बर मान्यता है।
थी-पु-संढशरीरं ताणं णोकम्म दव्वकम्मं तु । स्त्री पुरुष भारै नपुंसक का शरि उनको "नोकर्म" द्रव्य रूप कर्म है।
(गोम्मटसार, कर्मकाण्ड अधि०, गा० ०६) तत्त्वार्थ सूत्र-मोक्ष शास्त्र में द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद बताये हैं जब कि द्रव्य वेद और भाव वेद का नाम निशान भी नहीं है। फिर भी वेद के ऐस भेद मानना, यह नितान्त मनमानी कल्पना ही है। उन शरीरों को द्रव्य वेद मानने में और भी बाधा आती है । वेद यह मोहनीय कर्म का अंग है, गोम्मटसार जीवकांड गा० ६ का "वेदे मेहुणसंज्ञा" पाठ मैथुन संज्ञा में ही वेद का अग्निन्त्र बनाता है। इस सन्ग को कुचलना पड़ेगा। इसके अलावा जहाँ तक द्रव्य बंद है वहाँ तक द्रव्य माहनीय कर्म का अस्तित्व मानना पड़ेगा, और केवलज्ञान का निषेध करना पडेगा। अन्ततः पुरुष चिन्हादि युक्त शरीर केवलज्ञान का अधिकारी ही नहीं रहेगा । दिगम्बर समाज को यह बात मंजूर नहीं है।
यह तो निर्विवाद मान्यता है कि-चार घातिया कर्म चाहे द्रव्य से विद्यमान हो या भाव से विद्यमान हो, केवलज्ञान को रोकते हैं किन्तु चारों अघातिया कर्म केवलज्ञान को नहीं रोकते हैं। साथ २ में यह भी निर्विवाद है कि पुरुष स्त्री व नपुंसक के शरीर न तो वेद है, न कषाय हैं, न मोहनीय हैं, किन्तु स्पष्ट रूप