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चतुर्थ अध्याय : ८३
दबाकर सिलवटें दूरकर धूप से सुगन्धित किया जाता था । रंगीन वस्त्रों को देशराग कहा जाता था।' प्रश्नव्याकरण में कीड़ों से निकले रंग से रंगे वस्त्रों को कृमिराग कहा गया है। __ मूल्य के आधार पर वस्त्र तीन प्रकार के थे। उत्तम वस्त्र का मूल्य एक लाख "रुवग" और साधारण का १८ "रुवग" था। इनके मध्य का वस्त्र मध्यम मूल्य का था। देश में जहाँ निम्नवर्ग के लोगों के लिये सस्ता और साधारण वस्त्र निर्मित किया जाता था वहीं सम्पन्न वर्ग की आवश्यकतानुरूप मूल्यवान और सुन्दर वस्त्रों का भी निर्माण किया जाता था। इससे देश का तत्कालीन वस्त्रोद्योग उन्नत था ऐसा प्रतीत होता है। वस्त्रोद्योग के प्रसिद्ध स्थान
यद्यपि वस्त्र देश के प्रत्येक भाग में तथा प्रत्येक ग्राम व नगर में बनते थे, पर कुछ स्थानों के वस्त्र विशेष प्रसिद्ध होते थे । महिस्सर देश को "बाहुत्थदेश" (बहुत वस्त्रों) वाला देश कहा गया है। वहाँ इतने सुन्दर वस्त्र बनते थे कि साधुओं को भी उत्तम वस्त्र पहनने को अनुमति थी।' महिस्सर देश की पहचान मध्य प्रदेश के निमाड क्षेत्र के महेश्वर के समीपवर्ती क्षेत्र से की जा सकती है। उस क्षेत्र में आज भी अच्छी कपास होती है और अधिक मात्रा में वस्त्र बनते हैं। पौंड्रवर्धन में मोटा और बारीक दोनों प्रकार का वस्त्र बनता था। नेपाल, ताम्रलिप्ति, सिन्धु और सौवीर वस्त्रों के प्रसिद्ध स्थान थे ।" लाटदेश के वस्त्र बहुत मूल्यवान माने जाते थे। पूर्व देश में उनकी प्राप्ति दुर्लभ थी। कौटिलीय अर्थशास्त्र में मथुरा, कोंकण, कलिंग, बंग, कौशाम्बी आदि वस्त्रोद्योग के प्रसिद्ध स्थान कहे गये हैं।
१. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३ गाथा ३०० २. निशीथचूणि भाग २ गाथा ९५७ ३. "बहुवत्थदेसे जहां महिस्सरे" निशोथचूणि, भाग ३, गाथा ५०१२ ४. निशीथचूर्णि, भाग ४ गाथा ५८२१ ५. आचारांग २/५/१/१४५; बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४ गाथा ३९१२,३९१४ ६. यथा पूर्वदेशज वस्त्रं लाटविषयं प्राप्य दुर्लभं अघितं च"
निशीथचूणि, भाग २ गाथा ९५१ ७. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/११/२९