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आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिये धन के महत्त्व को देखते हुये मैंने सर्वप्रथम अर्थ की महत्ता का विवेचन किया है । उत्पादन के मूलभूत साधन-भूमि, श्रम, पूँजी, प्रबन्ध, जिनका डॉ. जगदीश चन्द्र जैन तथा दिनेन्द्रचन्द्र जैन ने अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है, किन्तु उनके महत्त्व को देखते हुए मैंने उनका अधिक विस्तृत विवेचन किया है। वितरण व्यवस्था पर ही समाज का आर्थिक जीवन निर्भर करता है, अतः विभिन्न वर्गों प्राप्त राष्ट्रीय आय का वितरण किस प्रकार होता था इसका मैंने विस्तृत अध्ययन किया है, जिस पर पूर्वलिखित इन ग्रंथों में कोई विचार नहीं किया गया था।
मैंने अपने अध्ययन पर आधारित इस ग्रन्थ को निम्न अध्यायों में विभाजित किया है। प्रथम अध्याय में प्राचीन जैन साहित्य के सर्वेक्षण में प्राचीन जैन आगम साहित्य तथा नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि उनके व्याख्या ग्रन्थ तथा जैन पुराण और कथा साहित्य का सर्वेक्षण किया है। द्वितीय अध्याय में अर्थ का महत्त्व और उत्पादन के साधन में धन के महत्त्व एवं उसके उपार्जन के साधन-भूमि, श्रम, पंजी और प्रबन्ध का विश्लेषण किया है। उत्पादन-प्रक्रिया की विषयसामग्री के आधिक्य के कारण उसे क्रमशः अध्याय तीन और चार में विभाजित किया है। इस प्रकार तृतीय अध्याय में कृषि और पशुपालन पर प्रकाश डाला है और चौथे अध्याय में उद्योगधन्धे पर विस्तृत वर्णन किया है । पाँचवें अध्याय में विनिमय, व्यापार, परिवहन
और सिक्कों का वर्णन किया है। छठे अध्याय वितरण में उत्पादन के साधनों-भूमि, श्रम, पूँजी तथा प्रबन्ध से प्राप्त होने वाले लाभांश लगान, पारिश्रमिक, ब्याज और लाभ पर प्रकाश डाला है। सातवें अध्याय में राजस्व व्यवस्था में राजकीय आय-व्यय के स्रोतों को स्पष्ट किया है। आठवें अध्याय में सामान्य जीवन-शैली को स्पष्ट करने वाले तत्त्व-भोजन, वेश-भूषा, आवास, मनोरंजन, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर प्रकाश डाला है । अन्त में उपसंहार है।
प्रस्तुत शोध-कार्य के निर्देशन का श्रेय प्रो० सागरमल जैन एवं आदरणीया डॉ० विभावती जी को है, जिन्होंने मधुर व्यवहार एवं विद्वत्तापूर्ण निर्देशन से मेरे इस शोध-ग्रन्थ को पूर्ण कराने में सहयोग दिया है। एतदर्थ मैं उनकी कृतज्ञ एवं ऋणी हूँ। पार्श्वनाथ विद्याश्रम के