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६८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन कुत्तों की सहायता से शिकार करना “सोणिय' कहा जाता था । शिकार को देखते ही कुत्ते आवाज करते हुए दौड़ते थे ।'
विपाकसूत्र से ज्ञात होता है कि छगलपुर में छन्नक नामक कसाई मांस प्राप्ति के लिये बकरों, भेड़ों, नीलगायों, वृषभों, शशकों, शूकरों, सिंहों, हरिणों आदि सैकड़ों पशु पालता था। वह पशुओं को अच्छा चारा देने तथा उनकी रखवाली आदि के लिये वेतन देकर कई नौकर रखता था। ये नौकर पशुओं का वध करके उनके मांस को राजमार्गों पर बेचते थे । भेड़ों को हृष्ट-पुष्ट कर सर्वप्रथम हल्दी के रंग में रंगा जाता था। पुनः लाल रंग से चिह्नित कर उनको मार देने का उल्लेख है। अतिथि सत्कार में मेमने का मांस देने का भी उल्लेख है। नगरों के बाहर "सनागह होते थे, जहां कच्चा मांस बिकता था। आवश्यकचर्णि में एक सूनागृह का उल्लेख हुआ है जहाँ प्रतिदिन ५०० पशुओं का घात किया जाता था।" ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि कछुओं को भी चमड़े के लिये मारा जाता था । मांस को सुखाकर भी रखा जाता था। निशोथचूर्णि में जहां मांस सुखाया जाता था उस स्थान को "मंसखल" कहा गया है। वनवासी वन्य-पशुओं का शिकार करके अपनी आजीविका चलाते थे । प्रश्नव्याकरण में उल्लेख है कि पशुओं का शिकार करने वालों को 'सोयरिया', पक्षियों का शिकार करने वालों को "साउणिया" कहा जाता था। शिकार करने के लिये लौह या दर्भ के फंदे, धनुष-वाण, गुलेल और कूटजाल का प्रयोग किया जाता था। सिंह को पकड़ने के लिये बकरी के मृत बच्चे को बांधकर उसे आकृष्ट किया जाता था और जब वह बकरी पकड़ने के लिये आता तो उसे फंसा लिया जाता था ।१०
१. बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा १५८५ २. विपाकसूत्र ४/३ ३. निशीथचूर्णि भाग ३, गाथा ४३४९ ४. निरयावलिया १/३० ५. आवश्यकचूणि भाग २, पृ० १६९ ६. ज्ञाताधर्मकथांग ४/३ ७. "मंसखलग जत्थ मंसं सोसंति"-निशीथचूणि भाग ३, गाथा ३४८१ ८. प्रश्नव्याकरण, १/२० ९. वही,१ /२० १०. वही, १/२०