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६४ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन गोमंडल में गया, अपने पशुओं को स्वस्थ और सुन्दर देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी राजकीय पशुओं को चिह्नित करने का उल्लेख है। जो राज-चिह्नित पशुओं की अदला बदली करता था उसे दण्ड दिया जाता था । पशुशालाओं में पोषित पशुओं के भोजनपानी का प्रबन्ध होता था। हाथियों को केले और डंठल, भैंसों को बांस की कोमल पत्तियाँ, घोड़ों को घास, चना, मूग तथा गायों को अर्जुन की. पत्तियां दी जाती थीं।३।
गोशालाओं में पशुओं का क्रय-विक्रय भी होता था। पउमचरिय के अनुसार पशुओं के क्रय-विक्रय में पशुओं के स्वामियों और ग्राहकों में परस्पर मतभेद भी हो जाते थे। कई बार गोशाला के कर्मचारियों और उनके स्वामियों में इतना विवाद हो जाता था कि वे गृहपतियों से क्रोधित होकर उनकी ऊंटशाला, गोशाला, अश्वशाला ओर गर्दभशाला को जला डालते थे।
पशु-पालन कृषि, दूध, यातायात, उनके चमड़े और मांस हेतु किया जाता था। कृषि में पशुओं के बहुविध उपयोग के कारण ही कृषक पशुपालन को अपना धर्म समझते थे। बैल हल चलाने, रहट चलाने, कोल्हू चलाने ओर शकट खींचने के उपयोग में आते थे।६ हल चलाने तथा रहट चलाने और गाड़ी खींचने वाले पुष्ट बैलों को उनके स्वामी अच्छा चारा देते थे। बैलों से आवश्यकता से अधिक कार्य लेना अच्छा नहीं माना जाता था। हल आदि देर तक चलवाने पर बैलों द्वारा क्रोध प्रदर्शित
१. संघदासगणि-वसुदेवहिण्डी भाग २, पृ० २९७ २. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/२९/४६ । ३. हथिस्स इटें णलइक्खु महिसो सुकुमाल वंसपत्तमादि आसो हरिमत्थ मुग्गादि
गोणो अज्जुणमादि सुगन्धदव्वं ।
निशीथचूणि भाग २, गाथा १६३८, बृहत्कल्पभाष्य भाग. २, गाथा १५९० ४. पउमचरिय ३/९५, ९६ ५. सूत्रकृतांग २/२/७१ ६. दशवकालिक ७/२४,२६ ७. बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा १११९