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५८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन वृक्ष, वन, श्मशान आदि सीमा-चिह्न होते थे ।' कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी ऐसा ही बताया गया है। कृषि के उन्नयन में राज्य का योगदान
भारत में सदा से कृषि के महत्त्व को स्वीकार किया गया है । यूनानी यात्री मेगस्थनीज़ के अनुसार राज्य में कृषि का इतना महत्त्व था कि जो प्रजा कृषि करती थी वह युद्ध अथवा अन्य किसी प्रकार की राजकीय सेवा से मुक्त थी। उनकी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता था। यहाँ तक कि गृहयुद्ध के समय भी सैनिकों को किसानों को उत्पीडित करने अथवा उनके खेतों को नष्ट करने की स्पष्ट मनाही थी।३।।
राज्य में किसी भी प्रकार के आपत्काल में पूर्व सुरक्षित-संचित अन्नभण्डार प्रजा के सहायतार्थ खोल दिये जाते थे। ओघनियुक्ति में एक ऐसे राजा का प्रसंग आता है जिसके राज्य में अकाल पड़ गया था। सारे अन्न-भण्डार रिक्त हो गये थे। तब राजा ने अपनी प्रजा के कल्याण के लिये अपने कोष्ठागारों से भोजन और बीज के निमित्त अनाज दिया। कौटिल्य ने कृषिकर्म की देखभाल के लिये नियुक्त राजकर्मचारा को "सीताध्यक्ष" कहा है ।" जैन ग्रन्थों में भरत चक्रवर्ती के १४ रत्नों में से एक रत्न गाथापति था जो राज्य में कृषि की देखभाल करता था । राजकोष की सम्पन्नता मुख्यतया कृषि पर निर्भर करती थी। इसलिए राज्य कृषि के विकास एवं उसकी समृद्धि के प्रति सदा सचेष्ट रहता था। कृषि को हानि पहुँचाने वाले कार्यों को रोका जाता था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार जो कृषक राजा से भूमि लेकर उस पर कृषि नहीं करता था उससे भूमि छीन ली जाती थी। सोमदेवसूरि ने लवण काल अर्थात् फसल की कटाई के समय गांव में सेना के प्रवेश का निषेध किया है ।।
१. आदिपुराण १६/१६७ २. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/१/१९ ३. पुरी बैजनाथ-इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाई अर्ली ग्रीक राइटर्स, पृष्ठ ७८. ४. औघनियुक्ति, पृष्ठ २३ ५. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/२४/३१ ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २/२२ ७. कौटिलीय अर्शशास्त्र २/१/१९ ८. सोमदेवसूरि-नीतिवाक्यामृतम् २२/१६