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तृतीय अध्याय : ४७
१ - वापिताः - धान्य को एक बार रोपना । २-परिवापिताः—धान्यों को एक स्थान से
उखाड़कर पुनः रोपित करना । आज भी इसी विधि से धान लगाये जाते हैं । ३-निदिताः - खेतों में से घास आदि निकाल कर धान्य लगाना । ४- परिनिंदिताः - धान्य लगाकर दो-तीन बार घास निकालना । ४
आज भी उत्तम उपज के लिए खेतों से बार-बार खर-पतवार निकालना आवश्यक समझा जाता है। खेतों में बीज डालने की विशिष्ट प्रणाली होती थी । बीजों को इस प्रकार डाला जाता था कि अंकुर सम्यग् रूप से निकल आयें । "
सिचाई
१. स्थानांग ४।५७६
२. आवश्यकचूर्णि १।५५६
३. " करिसण - पोक्खरणी वावि वय्यिण-कूप-सर- तडाग "
बीजों को बोने के बाद अच्छी पैदावार प्राप्त करने हेतु खेतों को सींचना अत्यावश्यक था । यद्यपि किसान सिंचाई के लिए वर्षा पर अधिक निर्भर करते थे फिर भी सिंचाई के लिए पुष्करिणी, बावड़ी, कुआ, तालाब, सरोवर आदि निर्मित किये जाते थे । लोग तालाब खुदवाना धर्म मानते थे । ३ अष्टाध्यायी में नहर, तथा कुओं से धान के खेत सींचने का उल्लेख है । सिंचाई के लिए प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक दोनों साधनों का प्रयोग किया जाता था । रहट आदि कृत्रिम साधनों से सींचे जाने चाले खेतों को सेतु कहा जाता था । केवल वर्षा के पानी से सींचे जाने वाले खेत केतु कहे जाते थे। " नदियों पर यंत्रों की सहायता से बाँध बाँधे जाते थे जिससे आवश्यकतानुसार पानी को रोक लिया जाता था और आवश्यकता न होने पर पानी छोड़ दिया जाता था । बौद्ध ग्रन्थों में भी नदियों पर बाँध बाँधकर सिचाई करने के उल्लेख हैं । शाक्य देश में शाक्य और
प्रश्नव्याकरण १।१४
४. “धर्म निमितं तडागं खनति" व्यवहारसूत्र पीठिका पृ० १३; बृहत्कल्पभाष्य भाग १ | गाथा २६२
५. अष्टाध्यायी १।१।२४ तथा ३।३।१२३
६. “खेत्तं सेउ - उ ं, सेय अरहट्टाइ केउ वरिसेणं'
७. विमलसूरि - पउमचरियं १० ३५,५१
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बृहत्कल्पभाष्य भाग २ | गाथा ८२६