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तृतीय अध्याय : ४१ धान्यों के खेतों का वर्णन है। आचारांग में शाक-सब्जी के खेतों में, बीज प्रधान खेतों में तथा शालि, व्रीहि, माष, मूग, कुलत्थ आदि धान्यों के खेतों में साधु को यत्नपूर्वक चलने का आदेश दिया गया है। वर्ष में साधारणतया दो फसलें उगाई जाती थीं। पाणिनि ने तो वर्ष में तीन फसलों का उल्लेख किया है। आश्विन में बोई जाने वाली फसल आश्वयुज, ग्रीष्म में बोई जाने वालो गृष्मक और वसन्त में बोई जाने वाली वासन्तक कही जाती थी। आजकल भी जहाँ सिंचाई की सुविधा होती है वर्ष में तीन फसलें लगाई जाती हैं । कृषि-श्रम
निशीथणि में दो प्रकार के किसान कहे गये हैं -(१) कुटुम्बी, (२) कर्मकर । कुटुम्बी वे किसान होते थे जिनके पास प्रभूत साधन होते थे । वे अपने खेतों में कर्मकर नियक्त करते थे। दूसरे भूमि-हीन किसान होते थे जिन्हें कर्मकर कहा जाता था ।" प्रसिद्ध व्याकरणकर्ता पाणिनि ने भी तीन प्रकार के किसान बताये हैं
१. अहलि : जिनके पास हल न हो। २. सुहल सुहलि : जिनके पास उत्तम हल हो ।
३. दुहेल दुर्हलि : जिनके हल जीर्ण-शीर्ण हो । ___ सोमदेवसूरि ने हल चलाकर जीविकोपार्जन करने वाले को 'हलायुधजीवि' कहा है। सम्भवतः वे कृषक अपना हल-बैल ले जाकर दूसरों की खेती करते थे। जिन कृषकों के खेत और उपकरण अपने होते थे उन्हें गोप कहा गया है। जातक कथा से भी ज्ञात होता है कि कुछ श्रमिक हल इत्यादि कृषि उपकरण रखते थे और माँगने पर दूसरों को भी देते
१. सालीणि वा वीहीणि वा कोद्धवाणि वा केगूणि वा परगाणि वा रालाणि,
सूत्रकृतांग २/२/६९८ २. आचारांग २/१०/१६६ ३. दशवैकालिकचूणि पृ० ७४ ४. अष्टाध्यायी ४/२/४९ ५. व्यवहारभाष्य ६/१६३, १६४ ६. कौटिलीय अर्थशास्त्र २/२४/४१ ७. सोमदेवसूरि--यशस्तिलकचम्पू पृ० ९ ८. वही पृ० ९