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। १८ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
भू-सम्पत्ति अवश्य होती होगी।' गुप्तकाल के कई ताम्रलेखों से भूमि के विधिवत् विक्रय का पता चलता है । दामोदरपुर ताम्रपत्र के अनुसार तीन दीनार में एक कुल्यावाय भूमि खरीदी जा सकती थी। इसी प्रकार पहाड़पुर के ताम्रपत्र लेख के अनुसार पुण्डवर्धन भुक्ति में एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने तीन दीनार में डेढ़ कुल्यावाय भूमि क्रय करने के लिये राजा को प्रार्थना-पत्र दिया था। पुस्तकपाल और राज्याधिकारियों की स्वीकृति के बाद गाँव के मुखिया, सभ्यजन और राज्याधिकारियों के सामने भूमि माप कर, उसका क्षेत्र निश्चित करके विक्रय की जाती थी। भूमि के मूल्य का १/६ भाग राजकोष को दिया जाता था। राजा कभी-कभी राज्य की सुरक्षा करने वाले सामन्तों और उच्चाधिकारियों की सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें भूमि दान कर देते थे। विपाकसूत्र में ऐसे ही राष्ट्रकट (रट्ठकूड) का वर्णन है जो विजय-वर्धमानखेट के ५०० गाँवों का अधिपति था। सामूहिक स्वामित्व __जिस भूमि पर एक से अधिक व्यक्तियों का संयुक्त अधिकार होता था उसे सामूहिक स्वामित्व वाली भूमि कहा जाता था। ग्रामीण सामूहिक रूप से ऐसी भूमि की सुरक्षा और प्रबन्ध के उत्तरदायी होते थे । आचारांग के वर्णन से ज्ञात होता है कि चरागाह पर सामूहिक स्वामित्व था। इन पर ग्रामवासियों का समान अधिकार था और गाँव के सभी पशु उस पर चरते थे । मनुस्मृति के अनुसार गाँवों के चारों ओर १०० धनुष की भूमि सामूहिक संपत्ति थी। आचारांग से सूचित होता है कि गांव की वंजर भूमि को चरागाहों में बदल दिया जाता था और चारे की सुविधा अनुसार चरागाहें भी बदलती रहती थीं। पाणिनि ने भी कहा है कि चरागाहों में १. मनुस्मृति, १/९०. २. उपाध्याय वसुदेव, प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, पृ० १६१. ३. मैटो, एस० के० : इकोनामिक लाइफ आफ इण्डिया इन गुप्त पीरिएड,
पृ० ५९. ४. वही, पृ० ४९. ५. विपाकसूत्र, १/९. ६. आचारांग, २/१०/१६६ ७. मनुस्मृति, ८/२५७ ८. आचारांग, २/१०/१६६