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सप्तम अध्याय : १७९
ध्ययनचूर्णि में उल्लेख है कि विदेशी व्यापार से लौटे, करापवंचन का प्रयास करने पर, अचल नामक व्यापारी के श्रमाजित सोना-चाँदी तथा बहुमूल्य मोतियों को राजा ने छीन लिया था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी कर की चोरी करने वाले व्यापारियों के लिये दण्ड का विधान किया गया है। राज्य के व्यय के स्रोत
राजकीय कोश का अधिकांश प्रजाहित के कार्यों में व्यय किया जाता था। जो राजा कर ग्रहण करके भी प्रजा की देखभाल नहीं करता वह कुनृप माना जाता था। इसी कारण कैकयार्ध के राजा प्रदेशी को निन्दा की गई थी, क्योंकि वह प्रजा से कर लेकर भी उनका उचित रूप से पालन नहीं करता था ।३ मनु के अनुसार भी प्रजा से कर लेकर प्रजा-पालन न करने वाला राजा नरकगामी होता था। सूत्रकृतांग के अनुसार उत्तम राजा पीड़ित प्राणियों का रक्षक होता है, प्रजा के कल्याण के लिए नैतिकता और मर्यादा की स्थापना करता है। वह सेतु, नहर, पुल तथा सड़क का निर्माण करवाता है, भूमि तथा कृषि की उचित व्यवस्था करता है। राज्य को चोर, लुटेरों तथा उपद्रवियों से रहित करके उसकी दुर्भिक्ष और महामारी से रक्षा करता है।"
मुख्य रूप से करों से प्राप्त धन का उपभोग शासन-व्यवस्था, न्यायव्यवस्था, अन्तःपुर-व्यवस्था और जन-कल्याण के लिए किया जाता था। शासन-व्यवस्था पर व्यय
शासन की सुविधा के लिये पूरा राज्य जनपद, नगर, निगम, द्रोणमुख, पत्तन, मंडब, ग्राम, आकर, पल्ली, खेट, खर्वट, संवाह, सन्निवेश और
१. उत्तराध्ययनचूणि, ४/१२० २. कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/२१/३९ ३. राजप्रश्नीयसूत्र ५५ ४ योऽरक्षन्बलि मादत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः ।
प्रतिभागं च दण्डं च स सद्यो नरकं व्रजेत् ॥ मनुस्मृति, ८/३०७ ५. दयप्पत्ते सीमंकरे सीमंघरे खेमंकये खेमंधरे मणुस्सिंदे जणवदपिया जणवदपु
रोहिते सेउकरे णत्वरे-सूत्रकृतांग, २/१/६४३