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१६६ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन है जो धर्मानुष्ठान, यज्ञ और कुटुम्ब-संरक्षण में उपयोगी न हो। इसके अतिरिक्त उन्होंने धनिकों, धर्माधिकारियों, मंत्रियों, पुरोहितों और अधीनस्थ राजाओं से धन लेने की सलाह दी है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी उल्लेख है कि कोश के क्षीण हो जाने पर या अकस्मात् अर्थसंकट आ जाने पर राजा को कोश-वृद्धि के लिए जनपदों से अन्न का १/३ या १/४ भाग राज्य-कर के रूप में ग्रहण करना चाहिए।
निशीथचूर्णि में राजा को प्रदान किये जाने वाले द्रव्य को "खोड़" कहा गया है। प्रश्नव्याकरण में कर-ग्रहण अधिकारी को “खंडरक्खा" कहा गया है। निशीर्थाचुण से ज्ञात होता है "गोमिया" और "सुकिया" नामक अधिकारी राजा के लिये कर ग्रहण करते थे।५ गोमिया गाँव से और रट्टिय ( राष्ट्रकूट ) राष्ट्र से कर ग्रहण करते थे ।६ कर नकद और वस्तु दोनों रूपों में ग्रहण किया जाता था। व्यवहारभाष्य के अनुसार कर के रूप में धान्य, घी, फल, भाण्ड, वस्त्र आदि जो प्राप्त होते थे उन्हें गाड़ियों से कोष्ठागारों में पहुँचाया जाता था। राज्य को आय के स्रोत
राजकीय आय के स्रोतों पर ही राज्य की समद्धि और भावी योजनायें निर्भर करती हैं। मुख्यतः धार्मिक दृष्टि होने के कारण राज्य की आय-वृद्धि के लिये तत्कालीन राजाओं द्वारा लगाये गये कर और उनकी दर के सम्बन्ध में जैन-ग्रन्थों में विशेष उल्लेख नहीं है । यत्र-तत्र आये प्रसंगों से ही कर-व्यवस्था का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र, स्मृतियाँ और पुरालेख अवश्य ही प्राचीन कर व्यवस्था पर कुछ प्रकाश डालते हैं। १. सोमदेवसूरि, नोतिवाक्यामृतम् २१/१४ २. जनपदं महान्तमल्पप्रमाणं वा देवमातृकं प्रभृतधान्यं धान्यस्यांशं तृतीयं चतुर्थ
वा याचेत', कौटिलीय अर्थशास्त्र, ५/२/१० ३. 'खोडं णाम जं रायकुलस्स हिरणादि दव्यं दायव्वं'
निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ६२९५ ४. प्रश्नव्याकरण, २/३ ५. निशीथचूर्णि, भाग ४, गाथा ६५२१ ६. वही, भाग २, गाथा ४८९ ७. वही, भाग ४, गाथा ६२९६, ६४०८ ८. व्यवहारभाष्य, ६/२२३