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सप्तम अध्याय
राजस्व-व्यवस्था राज्य-संचालन में कोश का बड़ा महत्त्व था क्योंकि इसी से राज्य की सम्पूर्ण आर्थिक-प्रणाली का नियंत्रण होता था। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार कोश के नष्ट होने पर राज्य भी नष्ट हो जाता है।' आवश्यकचूर्णि में भी उल्लेख है कि जिस राजा का कोश क्षीण हो जाता है उसका राज्य नष्ट हो जाता है। निशीथचूर्णि में भी कहा गया है कि जो राजा अर्थोत्पत्ति के साधनों का संरक्षण नहीं करता, धनाभाव के कारण उसका कोश क्षीण हो जाता है और वह राजा नष्ट हो जाता है। सोमदेवसूरि ने तो कोश को राजाओं के प्राण की संज्ञा दी है। इनके अनुसार प्रजा का धनधान्य ही राजा का कोश है। यह दुःख-सुख में राज्य की रक्षा करता है। अतः राजा का यह कर्तव्य है कि वह न्यायोचित साधनों से भोग करते हुये कोश की वृद्धि करे। कौटिल्य ने कोश को राज्य का आधार माना है ।" निशीथचूणि से ज्ञात होता है कि मौर्यकाल से ही कोश का महत्त्व समझा जा चुका था। इसके अनुसार राजकोश ३ भागों में विभाजित था-कोष्ठागार-यह एक प्रकार का कोठार था जहाँ सब प्रकार के धान्यों को एकत्र किया जाता था, भाण्डागार-इसमें भाण्ड, वस्त्र आदि एकत्र किये जाते थे और कोशागार-जिसमें सोना, चाँदी और हीरों का संग्रह किया जाता था। कर-निर्धारण सिद्धान्त
प्रजापालन हेतु सम्पन्न कोश और सम्पन्न कोश हेतु प्रजा पर कर लगा कर धन एकत्र करना आवश्यक था। एडम स्मिथ ने भी राज्य के
१. बृहत्कल्पभाष्य भाग २, गाथा ९४० २. आवश्यकणि भाग २, पृ० २०० ३. निशीथचूणि भाग ३, गाया ४७९८, ४८०१ ४. कोशो ही भूपतिनां जीवितं न प्राणः ।
कोशं वर्धयन्नुत्पन्नमर्थमुपयुजीत,। सोमदेवसूरि-नीतिवाक्यामृतम् २१/३ ५. कोशपूर्वाः सर्वारम्भाः-कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/४/२६ ६. 'कोसो जहिं रयणादियं दव्वं' निशीथचूणि, भाग १ गाथा १२९,