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११४ : प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन
व्यापारिक मार्ग घने जंगलों से होकर जाते थे इसलिये चोर-डाकुओं का सदैव भय बना रहता था। जिस सार्थ में बहुमूल्य वस्तुएँ होती थीं उसके लूटे जाने का भय और अधिक रहता था, ऐसे सार्थ में साधुओं को जाने का निषेध किया गया था।' व्यापारी मूल्यवान वस्तुओं की रक्षा किस प्रकार करते थे इसका भी उल्लेख जैन ग्रन्थों में प्राप्त होता है । निशीथचूर्णि और भाष्य से ज्ञात होता है कि एक वणिक के पास ७००० मूल्य के मूल्यवान रत्न थे । मार्ग में चोर-डाकुओं के भय से उसने अपनी गठरी में नीचे की ओर रत्न रखकर तथा ऊपर कंकड़-पत्थर रखकर पागलों का सा भेष बना लिया था। बृहत्कल्पभाष्य में भी एक ऐसे वणिक् का उल्लेख है जिसने पागलों का भेष बनाकर अपने रत्नों की रक्षा की थी। कुवलयमालाकहा से ज्ञात होता है कि मायादित्य और थाणु नामक व्यापारियों ने विविध प्रकार से व्यापार करके पाँच हजार स्वर्ण मुद्रायें अजित की थीं। सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने उन स्वर्णमुद्राओं से दस रत्न क्रय किये तथा उन्हें गन्दे वस्त्रों में बाँध दिया । अपनी पहचान छिपाये रखने के लिये गेरुआ वस्त्र धारण करके सिर मुड़ा कर हाथ में छाता लेकर, दण्ड के अग्रभाग में तुंबी लटकाकर और हाथ में भिक्षा पात्र लेकर स्वदेश पहुँचे।४ खुरप्प जातक से ज्ञात होता है कि एक व्यापारी ने जंगली जाति को एक हनार की थैली देकर जंगल पार किया था। इससे प्रतीत होता है कि जंगली जातियाँ भी पारिश्रमिक लेकर यात्रियों को सुरक्षित रूप से जंगल पार करा देती थीं। __समराइच्चकहा में विवरण उपलब्ध होता है कि चोर-डाकुओं की आशंका के कारण व्यापारी अपने साथ सशस्त्र सुरक्षा दल लेकर भी चलते
१. बृहत्कल्पभाष्य, भाग ३, गाथा ३०७४ २. जलथल पहे य रयणा,णुवज्जणं तेण अडवि पज्जते । णिक्खणण फुट्ट-पत्थर, मा मे रयणे हर पलावो।
निशीथभाष्य, भाग ३ गाथा २९६२ ३. जलथलपहेसु रयणाणुवज्जणं तेण अडविपच्चंते णिक्खणण फुट्टपत्थर मा मे रयणे हर पलावो।
बृहत्कल्पभाष्य, भाग ५, गाथा ५८५७ ४. उद्योतन सूरि-कुवलयमालाकहा, पृ० ५८ ।। ५. खुरप्प जातक, आनन्द कौसल्यायन, जातककथा, भाग ३, पृ० ६०