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चतुर्थ अध्याय : ९७ प्रकार लंका के प्रासादों में हाथी दाँत के स्तम्भ और गवाक्ष थे ।' जातककथाओं में काशी की एक दन्तकार वीथी का उल्लेख हुआ है जहाँ हाथीदाँत का काम होता था । कभी-कभी हाथी - दाँत के लिये हाथियों का वध भी कर दिया जाता था । २ वाराणसी में राजघाट की खुदाई में हाथी- दाँत को कंघी और चूड़ियाँ प्राप्त हुई हैं ३ जिससे सिद्ध होता है कि घरेलू उपकरणों में हाथी दाँत का उपयोग होता था ।
१२ - चित्र - उद्योग
चित्रकार भी एक प्रकार के शिल्पी थे, वे अपनी चित्रकारी का प्रदर्शन भवनों, वस्त्रों, रथों और बर्तनों आदि पर किया करते थे।
प्राचीन जैनसाहित्य में चित्रकला के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लिखित धारणी देवी के "शयनागार " की छत लताओं, पुष्पावलियों तथा उत्तम चित्रों से अलंकृत थी । मल्लिकुमार ने अपने प्रमदवन में एक चित्र सभा बनवाई और उसमें चित्रकार श्रेणी को बुलवा कर एक चित्रसभा बनाने हेतु आदेश दिया । चित्रकार तूलि - कायें और रंग लाकर चित्र रचना में प्रवृत्त हो गये, उन्होंने भित्तियों का विभाजन किया, भूमि को लेपों से सजाया और उक्त प्रकार के चित्र बनाने लगे ।" उक्त सूत्र से पता चलता है कि उसी चित्रकार श्रेणी में एक चित्रकार इतना प्रवीण था कि किसी व्यक्ति के अंगमात्र को देखकर ही वह उसी जैसी प्रतिकृति बना सकता था । बृहत्कल्पभाष्य से भी ज्ञात होता है कि एक विदुषी गणिका ने अपनी चित्रसभा में विविध उद्योगों से सम्बन्धित चित्र बनवा रखे थे । जब कोई आगन्तुक चित्र - विशेष की ओर आकर्षित होता था तो वह उसकी वृत्ति और रुचि का अनुमान लगा लेती थो ।
१. वाल्मीकि रामायण २।१०।१५ ३।५५।१०
२. कासावजातक - आनन्द कौसल्यायन - जातककथा भाग २ पृ० १६०
३. डा० मोतीचन्द्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ ६५
४. ज्ञाताधर्मकथांग ११८
५. वही ८।११७
६. वही ८।१२०
७. बृहत्कल्पभाष्य भाग १ गाथा २६२
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