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24 / Jijñāsā
भाषा की कोमलता से विहीन हैं परन्तु विषय वस्तु की शाश्वतता एवं अभिव्यक्ति की निर्भीकता के कारण आज भी महत्त्वपूर्ण हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अनुकृति और सादृश्य दोनों शब्द असामान्य अर्थ को ही कहते हैं। वहाँ कोई विशेष अनुकार्य के रूप में प्रस्तुत करने का उद्देश्य नहीं होता अपितु मानस बिम्बात्मक सादृश्य विधान ही अभिप्रेत है।
रसतत्त्व का विमर्श
पुस्तक का मुख्य प्रतिपाद्य सौन्दर्य है तथा भारतीय परम्परा में सौन्दर्य का पर्याय रस है । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही आचार्य पाण्डे ने रूपतत्त्व के अन्तर्गत ही रूप के व्यंग्यार्थ के व्याज से रस के स्वरूप का भी विवेचन किया है। रसतत्त्व के विमर्श में मुख्यतः रसानुभूति की अलौकिकता, प्रेक्षकों को रसानुभूति कैसे होती है? अर्थात् रसानुभूति की प्रक्रिया तथा रसनिष्पत्ति का निरूपण किया गया है। आस्वाद रूप रस की मीमांसा करते हु आचार्य पाण्डे ने उसकी मनोरञ्जकता को सह्रदय विशिष्ट माना है न कि सामान्य मनोरञ्जकता, जो लोककलाओं तथा अन्य मनोरञ्जनों से प्राप्त होती है। रसतत्त्व का विवेचन करते हुए आचार्य ने प्रथमतः भरतमुनि की व्याख्या पर विचार किया है। भरत द्वारा दिये गये रस-सूत्र का निरूपण करते हुए आचार्य मम्मट का उल्लेख किया है, जिन्होंने सामान्य जीवन के कारण, कार्य और सहकारी की तुलना नाट्य के विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव से की है। भरत द्वारा प्रस्तुत भोज्य- रस तथा नाट्य रस की तुलना में जिन शंकाओं की संभावना है उनका परिहार करते हुए आचार्य पाण्डे ने दृष्टान्त तथा दाष्टन्तिक में सर्वथा साम्य की अपेक्षा का निराकरण किया है तथा यह स्पष्ट किया है कि भोज्य रस तथा नाट्य रस की तुलना सम्यक नहीं लगती है जैसे नये व्यञ्जन भोजन में अपना आस्वाद या रस जोड़ देते हैं परन्तु उस प्रकार की संभावना नाट्य रस के संदर्भ में नहीं होती। अभिनय में भाव के स्वयमेव अनुकरण पर आधारित होने के कारण कुछ आस्वाद जोड़ा नहीं जाता। इस शंका का परिहार इस प्रकार किया गया है कि भाव में व्यंग्यत्व को जोड़ा जाता है जिससे भाव के अभाव में भी रस स्फुट - प्रतीति के योग्य हो क्योंकि नाट्य में लोक की भाँति जन्य भाव नहीं होता, अपितु व्यंग्य (भाव) होता है वह नादयार्थ का आलम्बन करके मन से आस्वाद्य होकर रसत्व को प्राप्त होता है।
रस की स्थिति तथा निष्पत्ति के विषय में आचार्य ने रस सूत्र के प्राचीन विवृत्तिकारों और परवर्ती अन्य विद्वानों का उल्लेख करके अभिनवगुप्त की व्याख्या को विस्तार दिया है। यहाँ उन्होंने लोल्लट आदि के साथ आंग्ल विद्वान् निकल ( Nicoll) तथा भारतीय आचार्यों में दण्डी और हेमचन्द्र का भी उल्लेख किया है। रसनिष्पत्ति के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि कुछ प्राचीन दार्शनिकों के मतों का उल्लेख अभिनव भारती से ही प्राप्त होता है, परन्तु आचार्य पाण्डे ने अपने विवेचन में उस प्राचीन मत का भी उल्लेख किया है जिसे अभिनवगुप्त द्वारा भरत मुनि के अभिमत का विरोधी जानकर छोड़ दिया गया है। उदाहरणार्थ, सांख्य मत के अनुसार रस सुख-दुःख स्वभाव का है न कि आनन्द स्वरूप यह मत उस समय मान्य नहीं था । यद्यपि आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् सुख-दुःख की स्वभावता का समर्थन करते हैं आचार्य पाण्डे ने प्राचीन विवृत्तिकारों के मतों को दो भागों में विभक्त किया है। प्रथम में लोल्लट शंकुक सांख्य एवं कुछ पाश्चात्य दार्शनिक रस की लौकिक सुख-दुःखात्मकता का विचार प्रस्तुत करते हैं तथा नाट्य एवं शब्द कौशल से अविद्यमान अर्थ की प्रतीति को रस कहते हैं परन्तु यह समूह रसानुभूति की अलौकिकता को निरूपित नहीं करता अथवा किसी ने किया भी हो तो उसका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता ।
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दूसरा समूह काव्यादि को नियति कृत नियमों से विरहित, आह्लादमय मानता हुआ रस की विलक्षणता को ही सिद्ध करता है। इस समूह में भट्टनायक का मत महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने भावकत्व व्यापार द्वारा अनुकर्ता, अनुकार्य एवं सामाजिक के भावों को साधारणीकृत स्थिति में एक धरातल पर लाकर निर्वैयक्तिक रूप से रस प्रतीति को सिद्ध किया तथा साधारणीकृत रस प्रतीति में संभावित सभी बाधाओं का निराकरण किया। अभिनवगुप्त ने यद्यपि