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आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श / 21
इस संदर्भ में देवाख्यान-परक वैदिक साहित्य तथा वीरोपाख्यान-परक इतिहास काव्य (रामायण, महाभारत) के दृष्टान्त देकर आचार्य पाण्डे अपने अभिमत को स्पष्ट करते हुए रूप की अभिव्यञ्जकता को ही सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार देवाख्यान-परक वैदिक काव्य लोकोत्तर अर्थ का सांकेतिक व्यञ्जक है, जो वीरोपाख्यान-परक रामायण, महाभारत आदि काव्यों में परिवर्तित होकर जातीय चरित्र का व्यञ्जक हो जाता है। देवाख्यान में सत्-असत्, ज्योति-तमस के बीच संघर्ष को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त किया गया है, परन्तु इतिहास काव्य दुष्टों का दमन, असत्य पर सत्य की विजय, देव-दानवों के युद्धों द्वारा व्यंग्यार्थ को व्यक्त करता है। रूप शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया जाता है, इन्द्रिय ग्राह्य, प्रतीयमान तत्त्व के लिए रूप शब्द प्रयुक्त होता है, वह संरचना जो अभिव्यंजकत्व गुण से संयुक्त हो। ___रूप की अवधारणा संस्कृति सापेक्ष है, इसका स्पष्ट उदाहरण श्रमण धर्म तथा परवर्ती श्रेण्य युग (Classical Age) की मूर्त कलाओं में दिखाई पड़ता है। संस्कृति में परिवर्तन के साथ बुद्ध मूर्ति की कल्पना महापुरुष लक्षणों से युक्त पुरुष रूप में की गई। प्रारम्भिक बौद्ध कला में बुद्ध प्रतीक रूप में वृक्ष, स्तूप, चरण चिह, शून्य आसन, छत्र, प्रभामण्डल आदि द्वारा प्रस्तुत किये गये थे। उत्तरकाल में इन प्रतीकों का स्थान मूर्त रूप ने ले लिया। आचार्य पाण्डे सांस्कृतिक परिवर्तन के उदाहरण तथा इससे प्रभावित कला रूपों की चर्चा करते हैं।"
श्रमण धर्म के प्रचार के साथ बौद्ध दर्शन में रूप को काम और भोग का आलम्बन तथा इन्द्रियों का बन्धन माना गया, अतः रूपाश्रित कलाओं का बौद्ध धर्म में निषेध भी किया गया। यद्यपि शान्त रस की विभावना करने वाले बौद्ध श्रमणों ने निसर्ग-रमणीय रूपों को उपादेय भी माना। अतः काम-विषयक रमणीयता तथा अशुभ भावना आदि। से सम्बद्ध रूपों का परिहार करते हुए निष्काम असंगता तथा प्रसादयुक्त, शान्ति-परक, रमणीयता युक्त रूप को बौद्ध दर्शन में भी स्वीकार किया गया। कला में प्रयुक्त रूप की व्याख्या करते हुए आचार्य पाण्डे ने रूप की संरचनात्मकता, अभिव्यञ्जकता तथा कल्पना संवृत ज्ञान पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार
"काव्य शिल्प आदि में यथेष्ट और विज्ञान के अनुसार रचनावत्त्व ही रूप के सौष्ठव का अवच्छेदक (नियामक) है। कवि और शिल्पी बाह्य अर्थ का, लोकसाधारण रूप से प्रत्यक्ष करते हुए अपनी मनीषा से अपूर्व अर्थ से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं, अथवा अपूर्व स्वबुद्धि को नाम और रूप के
संयोजन से बाह्यार्थ की भाँति प्रकाशित करते हैं। (सौन्दर्यदर्शनविमर्श, पृ. 67) यद्यपि सब युगों में शिल्प तथा काव्य के उदाहरण उपलब्ध नहीं होते। ऐसी स्थिति में केवल अवशिष्ट काव्य, लक्षणग्रन्थों, संगीत आदि कलाओं के विवरण के आधार पर अनुमान द्वारा भी इस प्रभाव को पहचाना जा सकता है। उदाहरणार्थ, नाट्य तथा शिल्प में देवरूप की अभिव्यक्ति प्रमाण तथा वेश की विशिष्टता के आधार पर होती है, न कि रूप की विशिष्टता के आधार पर और न ही रूप की अनुकृति के आधार पर। वेश, प्रमाण आदि संस्कृति सापेक्ष, सांकेतिक लक्षण हैं यथार्थ प्रतिरूप नहीं। यह सभी संस्कृतियों तथा देशों की कला में दिखाई पड़ता है। सभी संस्कृतियों में देवताओं की मूर्ति का निरूपण आगम में दिये गये लक्षण और प्रतीकों के आधार पर ध्यान और उपासना के लिए होता है। अतः तत्त्व विद्या ही मूर्ति विद्या का आधार है। प्राचीन साहित्य, संस्कृति एवं शिल्प में रूपतत्त्व की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि, जो रूप इन्द्रिय गोचर है वह सांकेतिक लक्षण ही है, यथार्थ प्रतिरूप नहीं। भारत व यूनान की प्राचीन परम्पराओं में अनुकृतिवाद मूल अनुकार्य के रूप का संकेत या व्यञ्जक रूप ही प्रस्तुत करता है, यथार्थ प्रतिरूप नहीं। तत्त्व मीमांसा के आधार पर ही देव मूर्ति का प्रतिरूप प्रतिपादित होता है। शैव एवं वैष्णव मूर्तियाँ भी आगमों तथा ध्यान मन्त्रों की व्यञ्जक हैं। देवमूर्तियों के अतिरिक्त आधुनिक कला में भी रूप व्यक्ति, चरित्र तथा स्वभाव का व्यञ्जक माना जाता है।