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________________ आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श / 15 3. आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श नीलिमा वशिष्ठ 1 आचार्य प्रवर श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डे की बहुमुखी प्रतिभा से प्रकाशित भारतीय संस्कृति, दर्शन तथा इतिहास के अनेक पक्षों में सौन्दर्य मूल्य मीमांसा" भी एक महत्वपूर्ण योगदान है आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे ने सौन्दर्य मूल्य तथा कला विषयक अपने चिन्तन को प्रमुखतः दो पुस्तकों में व्यक्त किया है- 'सौन्दर्य दर्शन विमर्श" एवं 'मूल्य मीमांसा | मूल्य मीमांसा' नामक पुस्तक का 'सौन्दर्यबोध और कला' नामक अध्याय तथा सौन्दर्य दर्शन विमर्श नामक पुस्तक सौन्दर्य तत्त्व का सम्यक विवेचन करते हैं। सौन्दर्य दर्शन विमर्श नामक ग्रन्थ आचार्य पाण्डे द्वारा के एस. सुब्रह्मण्यम् की स्मृति में दिये गये व्याख्यानों का परिवर्धित रूप है, जो मूलतः देवभाषा संस्कृत में संवत् 2052 (1995 ईस्वी) में प्रकाशित हुआ था । संस्कृत भाषा में कारिका तथा वृत्ति शैली में विरचित सौन्दर्य शास्त्र की यह पुस्तक गूढ दार्शनिक अन्वीक्षा की उपलब्धि है सौन्दर्य दर्शन विमर्श में रससिद्धान्त के विवेचन के अतिरिक्त प्रमुखतः रूपतत्त्व का विवेचन किया गया है। उपरोक्त विश्लेषण में आचार्य पाण्डे की दृष्टि सार्वभौमिक रूप से सौन्दर्य मूल्य का विवेचन तथा कलाओं के अन्तः सम्बन्ध की धारणा को पुष्ट करने की है। सामान्यतः आधुनिक विचारकों तथा समीक्षकों द्वारा यह धारणा व्यक्त की जाती रही है कि रससिद्धान्त का व्यापक प्रयोग नाट्य के अतिरिक्त संगीत, वास्तु मूर्ति, आदि अन्य कलाओं की समीक्षा में नहीं हो सकता।' आचार्य पाण्डे ने आधुनिक समालोचकों के इस मतिविभ्रम को दूर कर दिया है। सौन्दर्य दर्शन विमर्श में किया गया रूप तत्त्व का विमर्श तथा मूल्य मीमांसा के सौन्दर्य बोध की व्याख्या का वस्तुतः यही उद्देश्य भी है। भारतीय परम्परा में रस सौन्दर्यशास्त्र का प्रमुख प्रतिपाद्य है। यदि रस मीमांसा के चिन्तन का ऐतिहासिक क्रम में विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस विषय की विचार परम्परा विच्छिन्न रूप में वैदिक साहित्य से ही प्राप्त होने लगती है, जिसका विकास सहस्रों वर्षों के विचार-विमर्श, खण्डन- मण्डन आदि के माध्यम से अभिनवगुप्त (दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध) तक एक सुविचारित रूप ले लेता है। रस सिद्धान्त के रूप में विकसित इस शास्त्र के अन्तर्गत सभी ललित कलाओं-साहित्य, शिल्प, संगीत, नाट्यादि से प्राप्त आस्वाद की मीमांसा हो सकती है भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से ही रसचिन्तन का सूत्रपात होता है, यद्यपि रस शब्द के पदार्थ-सार, द्रव्य-गुण, धातु-शक्ति, पदार्थ स्वाद के रूप में अनेक उल्लेख भारतीय वाङ्मय में प्राप्त होते हैं। इसके साथ ही शिल्प शास्त्रों में भी रस को ही लक्ष्य मानकर विविध कलाओं की निर्माण प्रविधियों की स्थापना, कलाओं के उत्तरोत्तर विकास के साथ की गयी। अभिनवगुप्तोत्तर काल में भोजराज के श्रृंगार प्रकाश तथा समरांगण सूत्रधार तथा सोमेश्वर के अभिलषितार्थचिन्तामणि, अपराजितपृच्छा आदि ग्रन्थों में शिल्प प्रविधियों के व्याख्यान में भी कलाओं के उद्देश्य के रूप में रसास्वाद को ही निरूपित किया गया है। मध्यकाल में 14वीं तथा 17वीं शताब्दी में
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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