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Jijiyasa
के जीवन-वृत्त, दार्शनिक चिन्तन एवं विभिन्न दार्शनिक प्रस्थानों से उनके संवाद की गवेषणात्मक प्रस्तुति है। इस पुस्तक के प्रणयन की प्रेरणा मित्रवर प्रो. के. सच्चिदानन्द मूर्ति ने दी थी, जिन्होंने मुझसे इग्लैण्ड में आयोजित World Philosophical Congress में शङ्कराचार्य पर एक विशेष व्याख्यान हेतु निमंत्रण दिया था। गिरिजाशङ्कर प्रसाद मिश्र स्मृति व्याख्यान के रूप में शङ्कराचार्य की ऐतिहासिक भूमिका पर जयपुर में व्याख्यान दिया था जो राजस्थान विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ।
इसी अन्तराल में मैंने अस्ताचलीयम् नाम से प्राय: चालीस अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवियों की कुछ कविताओं का संस्कृत में काव्यानुवाद किया, जो कि बन्धुवर विद्यानिवास मिश्र जी के कुलपतित्व में वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। इसके कुछ समय बाद हिन्दी में हंसिका और जया नाम से दो कविता संग्रह प्रकाशित किये। इन दोनों संग्रहों में एक प्रकार की आध्यानपरकता और प्रश्नाकुलता है जिसके विवादी स्वर के रूप में प्राकृतिक सुषमा की अनुभूति है। हिन्दी कविताओं के साथ ही मैं संस्कृत में भी कविताएँ लिखता रहा किन्तु उनका प्रकाशन बहुत बाद में भागीरथी के नाम से 2002 में हुआ। भागीरथी में अनेक प्रकार की कविताएँ अनेक खण्डों में विभक्त हैं। शैली अनेक अंशों में पुरानी होते हुए भी विचारों में नवीन और चिरन्तन मिले हुए हैं। इस संग्रह पर के. के. बिड़ला फाउण्डेशन्स के द्वारा 2003 का सरस्वती सम्मान घोषित किया है।
लगभग 1993 से देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय के निर्देशन में कार्यान्वित हो रही भारतीय विज्ञान, दर्शन और संस्कृति के इतिहास की परियोजना में सम्पादक के रूप में सम्मिलित हुआ। पिछले नौ-दस वर्षों से मेरे सम्पादित दो बृहत्काय ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं : Dawn of Indian Civilization, Life Thought and Culture in India. और इसका तीसरा भाग India and South Fust Asia प्रकाशनाधीन है, चौये का सम्पादन चल रहा है। जिसका विषय है Golden chain of Civilization : Indic. Iranic, Semetic & Helenic ये ग्रन्थ, इतिहास, संस्कृति और दर्शन की एक नवीन समन्वित धारणा को चरितार्थ करते हैं। इतिहास का अंतरंग भाग ज्ञान-विज्ञान और मूल्य-साधना के ताने-बाने से बुना हुआ है। इस धारणा को ऐतिहासिक साक्ष्यों और कालानुक्रम के अनुसार निरूपित करना कठिन होते हुए भी अत्यन्त वांछनीय है। भारतीय संस्कृति में वैज्ञानिक साधना का महत्त्व भी इनमें प्रकाशित होता है।
इस अन्तराल में मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रो. राधाकमल मुकर्जी व्याख्यानमाला में तीन व्याख्यान प्राचीन सामाजिक इतिहास पर दिये इनमें मैंने इस बात पर जोर दिया कि प्राचीन समाज का इतिहास धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र की परम्पराओं के गहन परिशीलन पर आधारित होना चाहिए, न कि आधुनिक चिन्तन में प्रचलित व्यवस्थापक प्रत्ययों और सूत्रों के आधार पर पुराने ग्रन्थों में बिखरे प्रकीर्ण तथ्यों की पुनर्योजना के द्वारा। 1998 में डॉ. कान्ति चन्द्र पाण्डे की जन्मशताब्दी के अवसर पर लखनऊ विश्वविद्यालय में मैंने तीन व्याख्यान अभिनवगुप्त के दर्शन पर दिये जिनमें प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अन्य दर्शनों से संबंधों पर विचार किया। सन् 2000 में स्विट्जरलैण्ड में आयोजित एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यूरोसाइंस सम्मलेन में भाग लिया और चैतन्य के स्वरूप पर एक व्याख्यान दिया जो बाद में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला से एक पृथक निबन्ध के रूप में प्रकाशित हुआ। 2001 में मुझे विज्ञान-दर्शन सम्मान दिया गया। जिसका विषय Golden chain of Civilization: Indic, Iranic Semetic & Helenic | यह सम्मान मुझे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विज्ञान में कृतित्तव के लिए मुझे प्रो. देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय के द्वारा स्थापित न्यास की ओर से प्रदान किया गया।
वैदिक अनुशीलन का जो सूत्र मैंने 1978 में दुबारा आरम्भ किया था, उसको 2000 में पूरा किया और वैदिक संस्कृति नामक पुस्तक 2001 में प्रकाशित की। इसमें वेदों की रचना तिथि, आर्य जाति का प्रश्न, वेदों के अनुवाद की विधि, वैदिक देवताओं का स्वरूप, यज्ञ का वास्तविक अर्थ, उपनिषदों की एकवाक्यता, भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों का सम्बन्ध और वैदिक युग में विज्ञान का विकास इन सभी प्रश्नों पर विचार किया गया है। वेद के अनेक सूक्तों के अनुवाद विद्वान्सुधी पाठकों को बहुत पसन्द आये हैं। इस पुस्तक का विमोचन भारत के शिक्षा मंत्री प्रो. मुरली मनोहर जोशी ने किया