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174 / Jijnāsā
पुस्तक 'आइडेंटिटी एंड बाइलेंस: द इल्यूजन ऑफ डेस्टिनी' के 'रीलिजियस एफिलिएशन्स एंड मुस्लिम आइडेंटिटी', 'मॅकिंग सेंस ऑफ आइडेंटिटी' 'ग्लोबलाइजेशन एंड वाइलेंस वेस्ट एंड एंटी वेस्ट' अध्यायों में तथा एडवर्ड सईद ने अपने एक लेख 'परिभाषाओं का संघर्ष' (आलोचना, सहस्राब्दी अंक 9, अ. जू. 2002) में धार्मिक पहचान एवं सभ्यताओं के संघर्ष का जबर्दस्त खंडन करते हुए बताया है कि लादेन और बुश अपने-अपने तरीके से आतंकवाद का पर्याय हो सकते हैं किन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि योरोप की संस्कृति ही नहीं, पूरी दुनिया की संस्कृति की तरह इस्लामिक संस्कृति के भीतर भी संस्कृति की कोई एक विचारधारा नहीं है। उसकी अनेक धाराएं अन्तर्धाराएं हैं। उनके खानपान, वेशभूषा, भाषा साहित्य में पर्याप्त विविधताएँ है। अमर्त्य सेन बताते है, कि धर्म सिर्फ एक पहलू है। सउदी अरब की औरतें सिर से पाँव तक बुर्के में होती हैं। तुर्की की महिलाओं का पहनावा मॉडर्न योरोप जैसा है । बंगलादेश में यहाँ तक कि स्त्री सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का पहनावा धोर पुराणपंथी महिलाओं जैसा है और भारत एवं पाकिस्तान में वे आधुनिक भी हैं और पारंपरिक भी। उनका न तो सामान्यीकरण करना ठीक है और न उन विविधताओं को पूर्वाग्रहों से ढँका ही जा सकता है। टी. डब्ल्यू एडनो ने लिखा है, कि एक खास पहचान को ही किसी जाति का एकमात्र पहचान बताने की परिणति जर्मनी में फासीवाद में हुई। फासीवाद जिस तरह बहुलवाद - प्लूरलिज्म को समाप्त कर 'सिंगुलर आइडेंटिटी पर बल देता है, उसी ने जर्मनी में अपनों की ओर से दूसरों की हत्या को एक अभियान में बदल कर जर्मन नस्ल की शुद्धता का मिथक खड़ा किया था । 28
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जो लोग यह मानते हैं कि इतिहास में पुनरावृति होती है वे यह भूल जाते हैं कि वह या तो दुःखांतिकी होती है या फिर प्रहसन 'यही शैली अमेरिकी फासीवादी वितंडावादियों के भाषणों में भी दोहरायी जाती है। अमेरिकी फासीवादी कभी भी अपने भावी अनुवायियों की अंतरात्मा का आह्वान नहीं करते। वे निरंतर बाहरी पारंपरिक और रूढ़ मूल्यों का आह्वान करते हैं जिन्हें तय और आधिकारिक रूप से सही माना जाता है। कभी भी जीवंत अनुभव या आलोचनात्मक छानबीन की कसौटी पर नहीं परखा जाता।' यह सही है कि 9/11 की घटना दुनिया भर का स्वघोषित अभिभावक संरक्षक बनने की अमेरिकी जिद के खिलाफ दूसरी अतिवादी कारवाई थी किन्तु बाद में अमेरिकी नेतृत्व में की गई सैनिक कारवाई को जिस तरह अमेरिकी विजयोन्माद की शक्ल में छोटे पर्दे पर उतारकर साम्राज्यवादी शक्ति की अपराजेयता का मिथकीकरण किया गया, उसे बर्बर एवं असभ्यों के विरुद्ध सभ्यों की जवाबदेही बताया गया उसे अमेरिकी रेडिकल चिंतक नोम चोम्सकी ने अपनी पुस्तक 9/11 एंड 'द कल्चर ऑफ टेररिज्म' में एक ऐसी बर्बर संस्कृति बताया है जिसमें केवल खूंखार ठग हिंसकों की हिंसा का आनंद लेते हैं और अपनी सैनिक ताकत एवं पागल फौजी दस्ते के बल पर ऐसे लोगों की हत्या और शारीरिक उत्पीड़न कराते हैं जो कहीं से उनका प्रतिरोध करने के लायक नहीं होते। इसी में उन्हें परम सुख मिलता है। चोम्स्की बताते हैं कि पहचान - अस्मिता की राजनीति का आज के युग मे उपयोग मूल्य ही नहीं विनिमय मूल्य भी है जहाँ सवाल सभ्यताओं, धर्मों, नस्ली एवं प्रजातिगत
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श्रेष्ठता एवं सांस्कृतिक पहचान का उतना नहीं है जितना पूँजी की बेलगाम ताकत के विस्तार का है। पश्चिम उसे अपनी सैनिक शक्ति के बल पर पाना चाहता है और इस्लामी दुनिया का एक हिस्सा पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ते हस्तक्षेप से अपनी रक्षा, धर्मयुद्ध चलाकर करना चाहता है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असंभव है। वैजमिन बार्बर ने इस्लामी आतंकवाद का पर्याय 'जेहाद' और पश्चिम की उपभोक्तावादी 'मैक' संस्कृति के फर्क के बावजूद उनके बीच की समानता को उद्घाटित किया है। “जेहाद और उपभोक्तावाद (मैकवर्ल्ड) समान ताकत से विरोधी दिशा में बढ़ते हैं। एक सनकपूर्ण घृणा से संचालित है, दूसरा बाजार की क्षुद्र विश्वजनीनता से एक आदि समाजों की संकीर्ण चारदीवारी के भीतर आधे अधूरे राष्ट्र को पनपने देता है, दूसरा राष्ट्रीय सरहदों में सेंध लगाकर बढ़ता है। फिर भी 'जेहाद' और 'उपभोक्तावादी' दुनिया में बहुत कुछ समान होता है। दोनों पूरी दुनिया को युद्ध की तरफ खींचते हैं, दोनों राष्ट्र राज्य की लोकतांत्रिक संस्थाओं को नहीं मानते हैं। दोनों को जनतांत्रिक नागरिक जीवन एवं भाईचारे से परहेज है। दोनों मध्यकालीनता की वैकल्पिक लोकतांत्रिक संस्थाओं को स्वीकार नहीं करते। नागरिक स्वतंत्रता एवं समानता के प्रति दोनों तटस्थ होते हैं। " 29
अंत में एक बात और, 1933 में बुल्गारिया के चिंतक ज्यार्जी देमित्रोव ने फासीवाद विरोधी लेखकों की एक सभा में कहा