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विचार-यात्रा / xix
था कि भारतीय संस्कृति का आधार योग साधना, अहिंसात्मक धर्म और नीति एवं संस्कृत भाषा और वाङ्मय की परम्परा है। किन्तु 1947 के बाद भारतीय इतिहास लेखन में सामाजिक इतिहास ही प्रधान विषय बन गया है, समाज का आधार वैचारिक है अथवा भौतिक यह प्रश्न उस समय बहुत जीवन्त प्रश्न था। मैंने सामाजिक इतिहास की एक शोध योजना बनायी जिसके अन्तर्गत मेरे निर्देशन में अनेक मेधावी छात्रों ने कार्य किया, बाद में ये प्रसिद्ध सामाजिक इतिहासकार बने, जैसेप्रो. विमल चन्द्र पाण्डे, प्रो. बी. एन. एस. यादव, प्रो. लल्लन जी गोपाल, प्रो उदय नारायण राय। ___1957 में मेरी पुस्तक Studies in the Origins of Buddhism प्रकाशित हुई। इसमें बौद्ध सिद्धान्तों के विषय में परिवर्तित मान्यताओं की परीक्षा आगम के मूल रूप के अलोक में की गयी है और उन अनेक प्रचलित धारणाओं के विरोध में है जो कि बौद्ध दर्शन को नितान्त अनात्मवादी बताती है। बौद्ध दर्शन की मौलिकता बताते हुए भी इस पुस्तक में उसका उपनिषदों से गम्भीर सम्बन्ध प्रदर्शित किया गया है। विभिन्न होते हुए भी वैदिक और श्रमण परम्पराओं में आदान-प्रदान था और यह बौद्ध दर्शन एवं वेदान्त दोनों में ही देखा जा सकता है, किन्तु बौद्ध परम्परा का उद्गम श्रमण परम्पराओं में ही नहीं खोजना चाहिए। आध्यात्मिक दर्शन का मूल आध्यात्मिक अनुभूति ही है, बुद्ध-देशना भी सम्बोधि से ही उपजी है। यह अवश्य है कि देशना के प्रसंग में तत्कालीन विचार-सन्दर्भ संप्रेषण के लिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद और निर्वाण की अवधारणाओं पर भी इस पुस्तक में विशेष रूप से विस्तृत विचार किया गया है क्योंकि इन्हीं अवधारणाओं के माध्यम से सम्बोधि की प्रथम अभिव्यक्ति हुई थी। प्रतीत्यसमुत्पाद को कार्यकारणभाव से अलग कर तार्किक सापेक्षता
और गणितीय प्रकार्यता से मैंने तुलनीय बताया है, प्रतीत्यसमुत्पाद सांवृत वस्तुजगत् की अनित्यता और सापेक्षता का सिद्धान्त है जबकि निर्वाण चरम सत्य का। परमार्थ सत् और असत् के द्वन्द्र से अतीत होने के कारण उसका ज्ञान मध्यमाप्रतिपदा है और निर्वाण अतयं, अप्रमेय और नित्य होते हुए भी अभावात्मक नहीं है। मिस हार्नर ने जे. आर. प. एस. में इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि निर्वाण का प्रश्न इस बार हल हो गया है। 1961 में जेड. डी. एम. जी. पत्रिका की समीक्षा में इस पुस्तक को पिछले 20 वर्षों की सर्वोत्कृष्ट रचना बताया गया। यह ग्रन्थ ऐतिहासिक और तुलनात्मक धर्म-दर्शन की दृष्टि से लिखा गया था।
प्रो. रामप्रसाद त्रिपाठी की प्रेरणा से 1957 में लिखे गये बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास नामक ग्रन्थ में बौद्ध विचारधारा और दार्शनिक प्रस्थानों का उनकी तार्किक व्यवस्था के साथ निरूपण का प्रयत्न किया गया है। बौद्ध दर्शन के विकास में जहाँ एक ओर विश्लेषण और द्वन्द्वात्मक तर्क की भूमिका देखी जा सकती है वहीं दूसरी ओर उसमें मूल आध्यात्मिक प्रेरणा को बार-बार प्रतिष्ठित करने की चेष्टा भी देखी जाती है। इस पुस्तक के विषय में प्रो. नाकामुरा ने अपनी प्रसिद्ध Bibliography में टिप्पणी की है कि इतना सन्दर्भपुष्ट ग्रंथ अन्यत्र दुर्लभ है। ___ 1957 में मैं नवस्थापित गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व एवं संस्कृति विभाग के प्रथम नियुक्त प्रोफेसर के रूप में पहुँचा। वहाँ मुझे यह अवसर मिला कि प्राचीन इतिहास के अध्ययन का विश्व इतिहास, राजनीति-दर्शन
और सांस्कृतिक परम्परा से अविच्छिन्न रूप में अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध किया जाय। गोरखपुर के पाँच वर्षों में मुझे विश्वविश्रुत बौद्ध विद्वान् आचार्य सुजुकी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। परमपावन दलाईलामा से भी मैं मिल सका।
इन्हीं दिनों मैंने टी. एस. इलियट और जेम्स जॉयस का विशेष अध्ययन किया। मुझे यह लगा कि सांस्कृतिक विश्व कालानुक्रमित और निरन्तर विच्छिन्न न होकर एक अनुवर्तमान और उपचीयमान परम्परा के रूप में अपनी कालिकता से परे एक अकालिकबोध का आभास देता है। मेरे काव्यसंग्रह अग्निबीज में इस बोध का कुछ स्फुरण है जो कि उसके परवर्ती संग्रह क्षण और लक्षण में अधिक स्पष्ट है। अग्निबीज विद्यानिवास मिश्र की प्रेरणा से प्रकाशित हुआ था, क्षण और लक्षण यशदेव शल्य की। ____1962 में गोरखपुर से जयपुर Tagore Prof. of Indian Culture के पद के लिए निमन्त्रित होकर चला गया। वहाँ दयाकृष्ण, यशदेव, शल्य आदि अनेक ऐसे दार्शनिकों से मेरा सम्पर्क हुआ जो स्वतन्त्र विचारों के थे। 1965 में 'मॉडर्न