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________________ 168 / Jijñāsā के खिलाफ फ्रांसीसी राज्यक्रांति के तीन नारों को एक विचारधारात्मक औजार की तरह इस्तेमाल किया था और उन्हें मानव नियति का रक्षक - 'सेवियर ऑफ ह्यूमन डेस्टिनी' घोषित किया था, वे ही आज उनकी मौत के जश्न में शामिल हैं। उनकी दृष्टि में सामाजिक क्रांतियाँ, वर्गसंघर्ष, समाजवाद, मार्क्स और हेगेल की बौद्धिक परंपराएँ सभी 'ग्रैंड नरेटिव्ज'- महाआख्यान हैं। राष्ट्र राज्य की आधुनातन संकल्पनाएँ निरर्थक हो चुकी हैं। समाजवाद के अंत के साथ ही इतिहास का अंत भी हो गया है। बाजारवाद, वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण ने राष्ट्रों की सीमाओं को खारिज करते हुए पूरी पृथ्वी पर विश्वग्राम की स्थापना कर दी है। इस विश्वग्राम पर अंतिम खिची लकीर उपभोक्तावादी अमेरिकी समाज और उसमें रहने वाला औसत उपभोक्तावादी अमेरिकी नागरिक इतिहास का अंतिम मनुष्य है। कम-से-कम फ्रांसिस फूकोयामा यही बताते हैं। 13 - उत्तर औपनिवेशिक वैचारिकी एवं प्राच्यवाद में कैसा संबंध है? ऊपर मैंने 'इतिहास का अंत' की चर्चा की है। रेडक्लिफ और मेलीनाकी पश्चिम के जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। मार्गन के मुकाबले वे बताते हैं कि इतिहास कपोलकल्पना है। उसके लिए दंतकथाएँ एवं तर्क गढ़े जाते हैं। इतिहासपुरुषों की कुछ मनोदशाएँ यानि मूड्स जैसे नेपोलियन की एल्प्स विजय की इच्छा इतिहास बनाती हैं। केनेडियन चिंतक नार्थ रॉ फ्राई ने अपनी पुस्तक 'द माडर्न सेंचुरी' में प्रगति से अलगाव को आधुनिक चेतना की विशेषता कहा है। उनकी दृष्टि में इतिहास में कुछ शाश्वत रूपों और संरचनाओं, जैसे प्रतीक, मिथक या आर्केटाइप की पुनरावृत्ति होती है। चूंकि किसी समय के मानस को अभिव्यक्त करने वाले विश्वासों और मान्यताओं का स्वरूप मिथकीय होता है इसलिए मानवजाति का इतिहास एक मिथक है, यानि आधा सत्य आधी कल्पना । सोवियत संघ के विघटन के पहले 1983 में बेनिडिक्ट एंडरसन की पुस्तक 'एमैजिंड कम्युनिटीज' कल्पित समुदाय छपी एंडरसन की धारणा है कि नेशनलिटी, राष्ट्र अथवा जिसे जाति या राष्ट्रीयता कहते हैं वे काल्पनिक सत्ताएँ है।' उनका कोई वास्तविक आधार नहीं होता है। अब अगर राष्ट्र, राष्ट्रीयता अथवा जाति काल्पनिक प्रपंच है तो इस तर्क से न तो उनका इतिहास होगा और न जिन देशों ने उपनिवेशवादविरोधी राष्ट्रीय मुक्तिआन्दोलन चलाया उसका कोई माने मतलब होगा। अगर राष्ट्र और राष्ट्रीयता की संकल्पनाएँ 'इमैजिंड' अर्थात् काल्पनिक हैं तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद का मुकाबला किस तर्क से होगा? 'सबलटर्न स्टडीज' के सातवें खंड में सुदीमो कविराज का एक लेख छपा है, 'द इमैजिनरी इंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया' इस लेख की वैचारिक भावभूमि वही है, जो एंडरसन की है। दोनों विचारकों की धारणा आज के भूमंडलीकरण की धारणा से पूरी तरह मेल में है। - - यह आकस्मिक नहीं है कि उत्तरआधुनिक वैचारिकी में 'अंत' और मृत्यु पर बड़ा जोर है पीटर एल. बर्जर ने लिखा है “आधुनिक जीवन में जो गहरा बिखराव है जिसे हम बहुलवाद का आसान नाम देना पंसद करते हैं, न केवल सामाजिक व्यवहार के स्तर पर दिखायी देता है, बल्कि उसकी महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति चेतना के धरातल पर भी हुई है। " 1+ इसी बिखराव का नतीजा है, मृत्यु का सिद्धांत गेला चार्थ ने 'लेखक की मौत' को स्वीकार किया तो एल्विन केरमैन ने साहित्य की मौत की बात कही। सी.डी. लेविस ने लिरिक की मृत्यु को स्वीकार किया था। अब तो कविता, उपन्यास आदिके साथ पुस्तक यानि 'टेक्स्ट' की मृत्यु की बात कही जा रही है। पिछली सदी के छठे दशक में डेनियल बेल ने उत्तर औद्योगिक समाज मे विचारधाराओं के अंत की बात कही थी। 15 21वीं सदी में फूकोयामा ने इतिहास के अंत का महाभाष्य लिख डाला। यहाँ यह याद रखना बहुत जरूरी है कि उत्तर आधुनिक वैचारिकी का नया बौद्धिक परिवेश उत्तर औपनिवेशिक समाज है, जिसमें पुराने सामाजिक डार्विनवाद का चेहरा नये रंग-रोगन के साथ सामने आया है। इसमें प्राच्यवाद भी शामिल है। उसकी हकीकत के विषय में अमेरिकी रेडिकल चिंतक सी. राइट मिल्स ने अपनी पुस्तक 'द सोशियोलाजिकल इमेजिनेशन की भूमिका में यह कहकर साफ कर दिया था कि उत्तर औपनिवेशिक दौर का पश्चिमी उदारवाद अब महाप्रतिक्रियावाद में बदल चुका है। वह स्वयं पश्चिमी समाज में उत्पन्न बौद्धिक संकट का परिणाम है। मिल्स ने जोर देकर कहा है कि इतिहास के सबसे असभ्य एवं अनुशासनहीन लोगों ने मानवनियति, भाग्य एवं भविष्य को सभ्य एवं अनुशासित बनाने का अब जिम्मा ले रखा है। मैंने लेख के शुरू में भी स्पष्ट किया है कि सीधी फौजी कारवाई के जरिए दूसरों को गुलाम बनाना उपनिवेशवाद का पुराना
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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