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Jijnasa
सन् 1585 (अथवा 1586 ई.) में ही शहंशाह अकबर द्वारा फरमान जारी कर देने के बाद, यह शुभ समाचार पूज्य जगद्गुरू को सुनाने के लिये शान्तिचन्द्रोपाध्याय ने सम्राट से जाने की आज्ञा मांगी, जो उन्हें मिल भी गई। उन्होंने अपने सहाध्यायी विद्वान भानुचन्द्रागणि तथा उनके शिष्य सिद्धचन्द्र गणि को सम्राट की सेवा में स्थापित कर दिया-समय समय पर देशना देने के लिये।
भानुचन्द्रगणि ने ही सम्राट को 'सूर्यसहस्रनाम पढाया। शहंशाह ने उन्हें उपाध्याय तथा खुशफहेम उपाधियों से अंलकृत किया। कालान्तर में इन्हीं गुरूशिष्य ने समन्वित रूप से बाणभट्ट प्रणीत कादम्बरी की टीका लिखी। भानुचन्द्रागणि के मुंह से ही शहंशाह ने विजयसेन सूरि की भूरि-भूरि प्रशंसा सुनी जो कि जगद्गुरू हीरविजय के उत्तराधिकारी शिष्य थे। अकबर ने उन्हें भी मिलने के लिये लाहौर बुलवाया। उस समय वह जगद्गुरू की आज्ञा से लाहौर गये सम्राट ने आचार्य विजयसेन का भी अभूतपूर्व सम्मान किया। शहंशाह की आज्ञा से आचार्य विजयसेन ने ही भानुचन्द्रागणि को उपाध्याय पदवी प्रदान की। विजयसेन के भी महाप्रतिभाशाली शिष्य नन्दिविजय को सम्राट ने 'खुशफहेम' उपाधि प्रदान की।
उपाध्याय शान्तिचन्द्रागणि ने पाटन में जगद्गुरू के दर्शन किये तथा शहंशाह प्रदत्त सारे फरमान गुरूचरणों में अर्पित किये। महामुनि हीरविजय सम्राट से हिन्दू जनता के लिये इतने सारे हितकार्य करा पाने में सफल होने के लिये प्रिय शिष्य के प्रति अत्यन्त वत्सल हो उठे।
संवत 1649 वि. (सन् 1592) ई. के शीतकाल में जगद्गुरू पट्टण से शत्रुञ्जय तीर्थ (मगध) की यात्रा पर प्रस्थित हो गये जिसमें लगभग 200 संघ एवं तीन लाख भक्तजन शामिल थे। यह तीर्थयात्रा जजियाकर से सर्वथा मुक्त थी।
जैसे कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द ने कुमारपालप्रतिबोध: की रचना की, प्राय उसी पद्धति पर महोपाध्याय शान्तिचन्द्रगणि ने कृपारसकोश: की भी रचना की है। परन्तु यह काव्य अकबरप्रतिबोधात्मक ही है - यह तथ्य काव्य की पुष्पिका से स्पष्ट हो जाता है : इतिपातसाहिश्रीअकबरमहाराजाधिराजप्रतिबोधकृते महोपाध्याय श्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचित: श्रीकृपारसकोशग्रन्थः सम्पूर्णः।
शान्तिचन्द्र गणि निश्चय ही अपने प्रवास में शहंशाह अकबर के परम प्रीतिभाजन बन गये थे। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने बादशाह के रूप में नहीं, अपितु एक 'रसिकस्वभाव 'कृपार्द्रचेता' उदार मनुष्य के रूप में अकबर के ठेठ स्वभाव को जान पहचान लिया था। वह शहंशाह के व्यक्तित्व का परिचय देते है
हयाशये कौशलमस्य पेशक्तं किं वर्णयामो यदनेन चालित:। मन्दोऽपिवाजी गतितोऽनिलायते परेरितो यः खलु मृण्मयायते। कल्पद्रुशारवाद्वयमस्य दीर्घ करद्वयं चेतसि निश्चिनोमि। तच्छायमास्थाम नृणांस्थितानां कुतोऽन्यथाऽनेन करोपताप:।। ककुद्यतः स्कन्धसपत्नभूतं स्कन्धद्वयं बन्धुरमस्य जज्ञे। यतोऽतिभूयानपि सूरवह: स्याच्चतुर्दिगन्तावधिभूमिभारः।। वक्षः कपाटविपुलं सुदृढ़यदस्य नोत्रानतां तदधिगच्छति गूढमन्त्रम्। अन्तर्दृतं विशति बीक्षितमात्रमेव दु:खं परस्य बहुशो ननु कोऽत्र हेतुः। अप्यन्यवदङ्ग क्षितिपस्य यद्यत् सभासदां लोचनगोचरीस्यात्।
सौभाग्यभङग्या भुवनातिशायि तत्सर्वमासेचनं बभूव।। कृपा. 62-66 उपरोक्त वर्णन में लेखक ने उनेक पद्य उद्धृत किये हैं ताकि सहृदय जन शहंशाह अकबर के व्यक्तित्व को उस कवि के माध्यम से प्रत्यक्ष देखें, जो कई महीने उसके साथ रहा था। वस्तुत: यह अकबर का आँखों देखा वर्णन है, सुना सुनाया नहीं।