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श्री कृष्ण का नैतिक चिन्तन एवं दर्शन /77
इस विषय में तुम्हें मैं एक ब्राह्मण का इतिहास कहता हूँ जो स्वर्गलोक से मेरे पास आया। तब मैंने उससे मोक्षधर्म के विषय में पूछा तब उसने काश्यप ब्राह्मण का प्रसङ्ग सुनाया। दिव्य योगी काश्यप ने आकाश में स्थित सिद्ध ब्राह्मण से कुछ प्रश्न किये, जीव की गति के विषय में। जीव के गर्भ प्रवेश, आचार, धर्म, कर्म, फल की अनिवार्यता के साथ संसार सागर से तरने का उपाय भी पूछा, तब सिद्ध ने इन सबके उत्तर दिये तथा मोक्ष प्राप्ति के उपाय भी बताये। इस प्रकार के विवेचन के साथ चार अध्यायों में यह काश्यप नामक उपगीता पूर्ण होती है।
तत्पश्चात् बीसवें अध्याय से ब्राह्मणगीता का प्रारम्भ होता है जिसमें एक ज्ञानयोगी ब्राह्मण से उसकी पत्नी संवाद करती है कि आप कुछ भी नहीं करते हैं, केवल एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान लगाते हैं। तब ब्राह्मण ने (16 अध्यायों में ब्राह्मण गीता में) मोक्ष के आधारभूत ज्ञान मार्ग की साधना को स्पष्ट किया। सब यज्ञों में श्रेष्ठ ज्ञानयज्ञ को माना गया है जो इन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होता है। अनेक रूपकों एवं कथाओं के माध्यम से ब्राह्मण, ब्राह्मणी एवं क्षेत्रज्ञ का आध्यात्मिक रहस्य स्पष्ट करते हैं। यह ब्राह्मणगीता आकार में कुछ छोटी ही है, पर इसमें उच्चस्तरीय अध्यात्म का विवेचन बड़ी बोधगम्य शैली में किया गया है। इसमें आरम्भ मे ही यह कह दिया है कि सामग्री, समिधा, घृत, सोम आदि से यज्ञ, हवन करना भी कर्म ही है, पर इस कर्म को राक्षस नष्ट करते रहते हैं। इसलिये सर्वोत्तम धर्म कर्त्तव्य आत्मा का ध्यान करना ही है अनुगीता 5.9.1। इस ज्ञान-यज्ञ में पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि को ही अग्नि की सात जिह्याएँ मानकर यज्ञ-कर्म की व्याख्या की गई है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि, "तूंघने वाला, भक्षण करने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, सुनने वाला, मनन करने वाला और समझने वाला- यह सातों इन्द्रियाँ श्रेष्ठ ऋत्विज हैं। ये सातों होता सात हविष्यों का, सात रूपों में विभाजित चिदग्नि वैश्वानर में भली प्रकार से हवन करके, अपने तन्मात्रादि योनियों में शब्दादि विषयों की उत्पत्ति करते हैं। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि-ये ही सात योनियाँ कही गई हैं। इनके सभी गुण हविष्य रूप हैं। वे अग्निजनित गुण में प्रविष्ट होते हैं, तथा वे अन्त:करण में संस्कार रूप से स्थित रह कर अपनी योनियों में उत्पन्न होते हैं। अनुगीता 5.22-28'
ब्राह्मणगीता में अध्यात्म विषयक समस्या को अनेक प्रकार से बहुत सूक्ष्म रूप में सुलझाया है और कहा है कि “मैं तो योग रूपी ज्ञान यज्ञ का ही अनुष्ठान किया करता हूँ जिसमें ज्ञानाग्नि को प्रज्ज्वलित किया जाता है। इसमें प्राण वायु को स्त्रोत, अपान को शस्त्र और सर्वस्व-त्याग को ही सर्वोत्तम दक्षिणा समझना चाहिये। अहंकार, मन और बुद्धि-यह तीनों ब्रह्म स्वरूप होकर होता, अध्वर्यु और उद्गाता होते हैं। नारायण को जानने वाले ज्ञानी पुरुष इस ज्ञान योग-यज्ञ को वेदानुकूल बतलाते हैं। वही नारायण इस सम्पूर्ण विश्व का संचालक है। जैसे जल नीचे की ओर बहता है वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति उसकी प्रेरणा से ही कार्य किया करता है। यही मोक्ष का सच्चा ज्ञान मार्ग है अनुगीता 20.1-9।" अध्याय 31 में अम्बरीषगीता 9 श्लोकों में ही कही गई है।
ब्राह्मणगीता के बाद भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को मोक्ष धर्म का विस्तृत विवेचन समझाते हैं। ब्रह्माजी के द्वारा उत्पन्न सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण के कार्य तथा फलों का प्रतिपादन करते हैं। त्रिगुणात्मिका प्रकृति के नामों का वर्णन करके उसके स्वरूप को जानने के फल भी बताते हैं। प्रकृति के भेद महत्, अहंकार, पञ्च महाभूत, इन्द्रियाँ आदि के स्वरूप को बतलाकर निवृत्ति मार्ग का उपदेश करते हैं। चराचर प्राणियों के अधिपतियों तथा धर्म के लक्षण को स्पष्ट करते हुए विषयों की अनुभूति, प्रक्रिया तथा क्षेत्रज्ञ की विलक्षणता विवेचित करते हैं। सभी पदार्थों के आदि और अन्त के वर्णन के साथ ज्ञान की नित्यता स्पष्ट करते हैं। अन्तिम भाग में ब्राह्मण आदि वर्णधर्म तथा आश्रम धर्म को स्पष्ट करके मुक्ति के साधनों में, देहरूपी वृक्ष का ज्ञान रूपी खड़ग से काटने का विज्ञान बतलाते हैं तथा विस्तार से आत्मा एवं परमात्मा का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं। अन्त में सत्त्व एवं पुरुष के भेद को स्पष्ट करके ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता उद्घोषित करते हैं। कर्तव्यों में अहिंसा सर्वश्रेष्ठ है। तप. स्वाध्याय. दान आदि साधनों की भी कहीं-कहीं आवश्यकता पड़ती ही है। अन्त में इस अध्यात्मवाद ज्ञान के पूर्णतया आचरण का उपदेश देकर श्रीकृष्ण द्वारका के लिए प्रस्थान करते हैं।