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________________ 74 / Jijnäsa "अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः। अप्राप्ययोगसंसिद्धि: कां गतिं कृष्ण गच्छति।। कच्चिनोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति। अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।" - गीता 6.37-38 हे कृष्ण यदि श्रद्धा से युक्ति व्यक्ति का योग से मन चलायमान हो गया तो उसे योगसिद्धि तो मिलेगी नहीं, तो कौनसी गति प्राप्त होगी? कहीं वह ज्ञान और कर्म दोनों से भ्रष्ट होकर बादलों की तरह छिन्न-भिन्न तो नहीं हो जायेगा? इस मार्ग पर पूर्ण विश्वास तो जब हो सकता है कि उसको यह पता लगे कि उसके उपदेशक पूर्णज्ञान सम्पन्न है। बिना पूर्ण ईश्वर के दर्शन के इस समस्या का समाधान नहीं है। मानव के नैतिक आचरण से जुड़ी हुई तीनों समस्याओं का समाधान गीता इस प्रकार प्रस्तुत करती है। समुचित ज्ञान की समस्या अपने तत्त्वज्ञान एवं दर्शन को समझने पर हल हो जाती है तथा उससे कर्मयोग का सिद्धान्त गीता निष्कर्ष रूप में उपस्थित कराती है। कर्मयोग की सैद्धान्तिक स्थापना हेतु श्रीकृष्ण जी ने गीता के दूसरे अध्याय में अनेक प्रबल एवं अकाट्य युक्तियों का परिस्फुटन किया है। सारत: समझ सकते हैं कि बिना कर्म के स्वातन्त्र्य लाभ नहीं है। कर्म संन्यास से संन्यास की भी सिद्धि नहीं होती है (गीता 3.41 क्षणमात्र भी मनुष्य अकर्मी नहीं रह सकता है (गीता 3.5)। शरीरयात्रा भी बिना कर्म सम्भव नहीं है (गीता 3.8)। कर्म सृष्टि का नियम है जो इसका उल्लंघन करता है वह वृथा जीता है और लोकसंग्रह (सामाजिक व्यवस्था) के लिए भी कर्म आवश्यक है (गीता 3.2011 परमात्मा भी कर्म इसलिए करता है उसको देखकर ही अन्य जन उनका अनुकरण करते हैं। सभी मनुष्य अकर्मी हो तो वह समाज ही नष्ट हो जाये। यद्यपि कर्म अनेक है तब मनुष्य कौन-से कर्म करे। संसार में भगवान् ने कार्य एवं अकार्य की व्यवस्था कार्यविभाजन के आधार पर चातुर्वर्ण्य एवं चातुराश्रम के रूप में शास्त्रों में प्रतिपादित की है। मनुष्य सामान्य एवं विशेष धर्मों का आचरण करे। गीता स्वधर्मपालन को श्रेष्ठ मानती है तथा परधर्म को अपनाने का निषेध करती हैं स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।" - गीता 3.35 अत: श्रुति, स्मृति एवं सदाचार अनुकूल स्वधर्म ही समुचित कर्म है। इससे पूर्ण विरक्ति है। अकर्म तथा विकर्म है निषिद्ध कर्मों का अनुष्ठान। मनुष्य इनको समुचित रूप में समझकर स्वकर्म का पालन करे। कर्तव्यपालन की समस्या के निदान हेतु हम देखते हैं कि हमारी कामनाएँ, इच्छाएँ या वासनाएँ हमें अज्ञान से आवृत्त करती हैं। अत: अज्ञान के कारण हम सत्कर्म के प्रति प्रेरित नहीं होते हैं तथा असत्कर्म से निवृत्ति नहीं हो पाती है। अत: इस बाधा का प्रधान कारण कामना का नाश करना चाहिये "जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।" - गीता 3.43 यह कामनारूपी शत्रु का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। भोगविषयों के सङ्ग से पुरुष आसक्त होता है, तब क्रमश: काम, क्रोध, मूढता, स्मृति नाश एवं स्वयं की बुद्धि नाश रूपी पतन के मार्ग में पतित होता है। इसे गीता इस प्रकार स्पष्ट करती है "ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गातज्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
SR No.022812
Book TitleJignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibha Upadhyaya and Others
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year2011
Total Pages272
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size11 MB
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