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संदर्भ अनुक्रमणिका जैनशतक, १४-१५, पृ. ६-७ । सिद्धान्त चौपाई, लावण्य समय, १-२ सारसिखामनरास, संवेग सुन्दर उपाध्याय, बड़ा मन्दिर, जयपुर की हस्तलिखित प्रति नयत्यात्मात्मेव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मन स्तर स्मान्नान्यो स्ति परमार्थतः ।।७५।। समाधि तन्त्र, ७५ थेरीगाथा, ४,४५९ आदि, नरभवरतन जनत बहुतनि तैं, करम-करम करि पायो रे। विषय विकार काचमणि बदले, स अहलै जान गवायो रे।। हिन्दी पद संग्रह, पृ. ३४। बनारसीविलास, भाषा सूक्तमुक्तावली, ५ पृ.१९ । वही, भाषा सूक्त मुक्तावली, पृ. १९ हिन्दी पद संग्रह, पृ.११६ ब्रम्हविलास, शतष्टोत्तरी, २१,२२,४४ वही, ४२, ४३ वही, शतअष्टोत्तरी, ८३-८५, परमार्थपद पंक्ति, ५ ।
जैन शतक, भूधरदास, २१ हिन्दी पद संह, वख्तरामसाह, पृ.१६६ । छहढाला, प्रथम ढाल, १-६ हिन्दी पद संग्रह, पृ.१८१-१९२ । सम्बोधपंचासिक, ३ दिगम्बर जैन मन्दिर बडोत की हस्तलिखित प्रति । प्रस्तुत विषय पर रहस्य भावना के बाधक तत्त्व' नामक अध्याय में विस्तार से मध्यकालीन कवियों के विचार प्रस्तुत किये जा चुके हैं। चेतन तू तिहूकाल अकेला, नदी नाव संजोग मिलै ज्यों, त्यों कुटुम्ब का मेला। चेतन।।१।। यह संसार असार रूप सब, ज्यों पटमेखन खेला। सुख संपत्ति शरीर जलबुद बुद, विनशत नाहीं बेला।। कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तज, होय सुगुरु का चेला। तास वचन परती न आन जिय, होइ सहज सुरझेला। चेतन।।३।। बनारसी विलास, अध्यातमपद पंक्ति, २।
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