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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
में हिचकिचाते हैं। उन्होंने लिखा है- "यह विचार भाषाशास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है। भाषाशास्त्र के अर्थ में जिसे हम हिन्दी (खड़ी, बोली, ब्रजभाषा, अवधी आदि) कहते हैं, वह इस साहित्यिक अपभ्रंश से सीधे विकसित नहीं हुई है । व्यवहार में पंजाब से लेकर बिहार तक बोली जाने वाली सभी उपभाषाओं को हिन्दी कहते हैं। इसका मुख्य कारण इस विस्तृत भूभाग के निवासियों की साहित्यिक भाषा की केन्द्राभिमुखी प्रवृत्ति है। गुलेरी जी इस व्यावहारिक अर्थ पर जोर देते हैं। “द्विवेदी जी कहते हैं। --जहां तक नाम का प्रश्न है, गुलेरी जी का सुझाव पंडितों को मान्य नहीं हुआ है। अपभ्रंश को अब कोई पुरानी हिन्दी नहीं कहता ।" परन्तु जहां तक परम्परा का प्रश्न है, निःसन्देह हिन्दी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश साहित्य से क्रमशः विकसित हुआ है। डॉ. प्रेमसागर ने भी लगभग इसी मत को स्वीकार किया है । "
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परन्तु हमारा मत है, हिन्दी साहित्य के आदिकाल की सीमा लगभग सप्तम शती से प्रारंभ मानी जानी चाहिए। अपभ्रंश भाषा के साहित्य को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय अपभ्रंश के साथ ही देशी भाषा का भी प्रयोग होता था । यह भाषावैज्ञानिक तथ्य है कि जब कोई बोली साहित्य के क्षेत्र में आ जाती है तो वह भाषा बन जाती है और उसका स्थान उसी की नई बोली ग्रहण कर लेती है। इसी को देशी भाषा कहा जा सकता है । इस भाषा के शब्द अपभ्रंश भाषा के साहित्य में यत्र तत्र बिखरे पडे हुए हैं। उन्हीं को हम " पुरानी हिन्दी ' कह सकते हैं। राहुल सांकृत्यायन की हिन्दी काव्यधारा इस तथ्य का प्रमाण है कि हिन्दी के आदि-काल में किस प्रकार अपभ्रंश और देशी
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