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________________ 373 रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन २. आत्म-परमात्म-निरूपण आध्यात्मिक दार्शनिक क्षेत्र में आत्मतत्त्व सर्वाधिक विवाद का विषय रहा है। वेदान्तसार, सूत्रकृतांग और दीघनिकाय में इन विवादों के विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। कोई शरीर और आत्मा को एक मानते हैं और कोई मन को आत्मा मानते हैं। कुछ अधिच्चसमुप्पन्निकवादी थे, कुछ अहेतुवादी थे, कुछ अक्रियावादी थे, कुछ क्रियावादी थे, कुछ अज्ञानवादी थे, कुछ ज्ञानवादी थे, कुछ शाश्वतवादी थे और कुछ उच्छेदवादी थे। ये सभी सिद्धान्त ऐकान्तिकवादी हैं। इनमें कोई भी सिद्धान्त आत्मा के वास्तविक स्वरूप पर निष्पक्ष रूप से विचार करते हुए नहीं दिखाई देता। वेदान्त के अनुसार आत्मा स्वप्रकाशक, नित्य, शुद्ध, सत्यस्वभावी और चैतन्ययुक्त है।६० बौद्धदर्शन में आत्मा ने अव्याकृतवाद से लेकर अनात्मवाद तक की यात्रा की है।५१ जैनदर्शन में आत्मा ज्ञानदर्शनोपयोगमयी, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिणामवान्, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और ऊर्ध्वस्वभावी है। जीव है सुज्ञानमयी चेतना स्वभाव धरै, जानिबी जो देखिबौ अनादिनिधि पास है । अमूर्तिक सदा रहै और सौ न रूप गहै, निश्चैनै प्रवान जाके आतम विलास है ।। व्योहारनय कर्ता है देह के प्रमान मान, भोक्ता सुख दुःखनि को जग में निवास है। शुद्ध है विलौके सिद्ध करम कलंक बिना, ऊद्धै को स्वभाव जाकौ लोक अग्रवास है।६२ मध्यकालीन हिन्दी सन्त आत्मा के इन्हीं विभिन्न स्वरूपों पर
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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