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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
उसके आते ही सुमति के खंजन जैसे नेत्रों में खुशी छा गया। और वह अपने चपल नयनों को स्थिर करके प्रियतम के सौन्दर्य को निरखती रह गयी। मधुर गीतों की ध्वनि से प्रकृति भर गयी । अन्तः का भय और पाप रूपी मल न जाने कहाँ विलीन हो गये क्योंकि उसका परमात्मा जैसा साजन साधारण नहीं। वह तो कामदेव जैसा सुन्दर और अमृत रस जैसा मधुर है। वह अन्य बाह्य क्रियायें करने से प्राप्त नहीं होता । बनारसीदास कहते हैं कि वह तो समस्त कर्मों का क्षय करने से मिलता है ।
म्हारे प्रगटे देव निरंजन ।
अटकौ कहां-कहां सिर भटकत कहां कहूं जन-रंजन | | म्हारे० ।। १ ।। खंजन दृग, दृग नयनन गाऊं चाऊं चितवत रंजन ।
सजन घर अन्तर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन || म्हारे ० || वो ही कामदेव होय, कामघट वो ही मंजन ।
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और उपाय न मिले बनारसी सकल करम षय खंजन || म्हारे ० ।।
भूधरदास की सुमति अपनी विरह व्यथा का कारण कुमति को मानती है और इसलिए उसे " जह्यो नाश कुमति कुलटा को, विरमायो पति प्यारो” (भूधरविलास, पद २९) जेसे दुर्वचन कहकर अपना दुःख व्यक्त करती है तथा आशा करती है कि एक न एक दिन काललब्धि आयेगी जब उसका चेतनराव पति दुरमति का साथ छोड़कर घर वापिस आयेगी (वही, पद ६९) ।
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जैन साधकों एवं कवियों ने रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों का उद्घाटन करने के लिए राजुल और तीर्थंकर नेमिनाथ के परिणय कथानक को विशेष रूप से चुना है। राजुल आत्मा का प्रतीक है और नेमिनाथ परमात्मा का। राजुल रूप आत्मा नेमिनाथ रूप परमात्मा से